स्लेट की मेहराब वाला
लकड़ी का घर 
हो गया है अब 
मकान आलीशान
सुविधाओं से संपन्न
पर
सुक़ून से कोसों परे ।
ज़र्द हो गया है बरगद
आग़ोश में जिसके
गुज़रा बचपन
जवानी और 
जेठ की कई दोपहरें । 
तोड़ दिया है दम
गुच्छेदार फूलों से
लदे अमलतास  ने 
सुनहली चादर से 
ढक लेता था जो आँगन
कभी-कभी
मेरे अँधेरों को भी । 
उदास रहती है
ब्यास नदी  
अक्सर 
बिना कश्ती के 
लाँघ लिया है उसे
किसी पुरपेच पुल ने । 
मेरा घर, मेरा गाँव
मेरा नहीं रहा 
मैं भी अब 
मैं कहाँ रही !