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विरह के रंग (2) / अश्वनी शर्मा
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हरजाई, आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताकती रहती है रेत
मनचले के रंग-ढंग
दुहाग दी गयी रानी-सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पाकर
सहेज लेती है
दो बूंद प्यार
कंगाल के धन-सा
आकंठ आसक्ता रेत
कभी-कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी।