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विरह मधुर / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी
Kavita Kosh से
मेरे शरीर में
जो धूप लग रही है दस बजे
दस किलोमीटर दूर,
तुम्हारे ऑफ़िस के बरामदे में
वही धूप
तुम्हारी देह का भी तो स्पर्श कर रही है
सान्ध्य रात में
पूर्णिमा का जो आलोक फैला है
और वृक्ष-वनस्पतियों की फाँक को
पार करता हुआ
मैं चलता जा रहा हूँ
शान्ति रूपी फार्मेसी में
उसी ज्योत्सना को
अपने शरीर में लेकर तुम
अपने घर की खुली छत पर
खड़ी रहती हो उस समय
किसकी सामर्थ्य है
जो हमें दूर-दूर रख सके !
मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी