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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=प्रदीप मिश्र|संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''अंगूठा भर हैं नन्हे मियाँ''' 
भय से थरथराती हुई आँखों में
कई रात गुजारने गुज़ारने के बाद
बारूद में भुने हुए बच्चों के
हाथ-पांव पाँव समेट रहे हैं
गुजरात के नन्हे मियाँ
पिछली चार पीढ़ियों से
पटाखों में रचे-बसे नन्हे मियॉ कहते हैं
बच्चे खुदा ख़ुदा की नियामत हैंइनकी निगाहों निग़ाहों से ही चुराकर भरता हूँ पटाखों पटाख़े में रोशनीजब बच्चे ही नहीं रहे तब कहाँ से आएगी पटाखों पटाख़े में रोशनी
अब वे नहीं बनाएंगे पटाखे बनाएँगे पटाख़े
नन्हे मियाँ के पटाखे पटाख़े न बनाने से
कहीं कुछ भी नहीं बिगड़ेगा
बाजार बाज़ार का पेट तो भर जाएगाचीन और अमरीका के पटाखों पटाख़ों से
कभी-कभार उनके घर के सामने से गुजरते गुज़रते हुएअचानक ठहर जाऐंगे जाएँगे किसी के कदमक़दमऔर उसके कानों में गूँजेगी वही आवाजआवाज़
कल ही तो दिया था / आज फिर आ गया
फोकट की लत बहुत बुरी होती है/ले अब मत अइयो .......
हाँ सम्भाल के जलइयोंजलइयो
बहुत खतरनाक खेल है बारूद का
इस कविता में एक सुधार जरूरी है , मित्रोंमित्रो !
नन्हे मियाँ केवल गुजरात के नहीं हैं
वे मेरठ के भी थे
मुरादाबाद के भी और मुम्बई के भी
लहौर लाहौर और इस्लामाबाद में भी रहते हैं
नन्हे मियॉ
जो अब नहीं बनाएंगे पटाखे बनाएँगे पटाख़े
नन्हे मियॉ
न तो मुसलमान हैं न हिन्दू
सिर्फ अंगूठाभर अँगूठाभर हैं
जिस पर पुती हुई है स्याही ।
 
</poem>
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