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<poem>अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए
फूलों जैसे लोग भी जाने क्यों जलते अंगार हुए

अपने ही कुछ भाई आकर दुश्मन के बहकावे में
अपने घर के टुकड़े टुकड़े करने को तैयार हुए

पुल होने का दावा करते फिरते हैं जो यहाँ- वहां
तेरे मेरे बीच में अक्सर लोग वही दीवार हुए

अज़ब बात है जब भी सोचा, कुछ दुनिया का हाल सुनें
सदा लूट व हत्याओं की खबरों से दो चार हुए

वहाँ वहाँ सूरज के आगे कोई बादल आ ठहरा
इस बस्ती में जहाँ सवेरा होने के आसार हुए

जो इस्पाती ढाल बने थे कभी हमारे सीने पर
जाने क्या हो गया उन्हें अब लोग वही तलवार हुए

इतनी बार खरीदे बेचे गए कि अब ये लगता है
जैसे हम इक जिन्स हुए हों, सब रिश्ते बाज़ार हुए</poem>
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