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|संग्रह=
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स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
हम सबको उलझाए रक्खा नीति-कथाओं में ।
गुरुओं-प्रभुओं से
जीए भी तो इनके ही
खूँटे पर पशुओं से
घुट-घुट कर रह गई हमारी चीख़ गुफ़ाओं में ।
कठघरा बनाया है
पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक
इनकी ही माया है
अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में।में ।
हम होते हैं हवन
और ये होता होते हैं
कान फूंकते जहांफूँकते जहाँ वहां वहाँ हम श्रोता होते हैं जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में।में ।
जैसे गोरे वैसे काले
कोई फर्क फ़र्क़ नहीं
सुनते जाओ करते जाओ
तर्क-वितर्क नहीं
कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में।में ।</poem>