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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी
ज़माने वालों की मुझपे ही है नज़र फिर भी

मैं उसके हुस्न की तारीफ़ कर के हार गया
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी

फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ क्योंकर
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी

फ़रिश्ता लाख इबादत करे फ़रिश्ता है
गुनाह लाख करे, है बशर, बशर फिर भी

ख़बर है मुल्के - अदम से वो आ नहीं सकते
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी

पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी

'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालामाल तो है
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी
</poem>
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