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रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी

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जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों <ref>परियों जैसी शक्ल सूरत वाली</ref> से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।
इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।
पूछा किसी ने यह किसी कामिल <ref>निपुण, होशियार</ref> फक़ीर से ।ये मेह्र<ref>सूर्य</ref>-ओ-माह <ref>चाँद</ref> हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
इस के मुशाहिर्द <ref>निरीक्षण</ref> में है ख़िलता ज़हूर <ref>प्रकट</ref> क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या ?
हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।
</poem>
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