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|रचनाकार =लीलाधर जगूड़ी
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जामा-मस्जिद के पास एक औरत चीख़ रही है
 
एक मर्द की गद्दारी पर,
 
मर्द लाचार-सा मगर साफ़-साफ़ दुराचारी-सा
 
दिखता चुप है
 
वह जब-जब कुछ कहता है, चीख़ती है औरत
 
सुनती है जामा-मस्जिद एक औरत की चीख़
 
दूर से आती हुई अजान की तरह
 
अंधेरा मिटाती, किवाड़-सी चरमराती
 
फिर जामा-मस्जिद से एक अजान आती है
 
मर्दों की जिद्दी और हठीली आवाज़
 
जिसे वह सुनती है चीख़ती है अजान के वक़्त
 
आँसू पीकर तोड़ती है रोजा
 
जामा-मस्जिद की सीढि़यों पर लेटी है वह
 
मीनारों से भी ऊँची और गुम्बदों से भी भारी
 चीख़ की तरह।तरह ।</poem>
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