1,427 bytes added,
09:16, 17 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने'''
व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने !
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं,
उड़ न सकते हम धुमैले स्वप्न तक,
शक्ति हो तो आ, बसा अलका यहीं।
फूल से सज्जित तुम्हारे अंग हैं
और हीरक-ओस का श्रृंगार है,
धूल में तरुणी-तरुण हम रो रहे,
वेदना का शीश पर गुरु भार है।
अरुण की आभा तुम्हारे देश में,
है सुना, उसकी अमिट मुसकान है;
टकटकी मेरी क्षितिज पर है लगी,
निशि गई, हँसता न स्वर्ण-विहान है।
व्योम-कुंजों की सखी, अयि कल्पने !
आज तो हँस लो जरा वनफूल में
रेणुके ! हँसने लगे जुगनू, चलो,
आज कूकें खँडहरों की धूल में।
</poem>