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'''जीवन परिचय'''
 
"आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद ‘सरस्वती’ को संभाल सकना और उसे दिशा दृष्टि दे सकना मामूली
 
नहीं था । एक तरह से उस महान युग की समाप्ति के साथ नये युग का सूत्रपात कर सकना और पिछले
 
युग की जिम्मेदारी को संभाल सकना एक महान व्यक्ति ही कर सकता था- और वह व्यक्तित्व बख्शी जी
का था । "
 
'''-कमलेश्वर'''
 
 
 
ऐसे महान व्यक्तित्व, सरस्वती के कुशल संपादक, साहित्य वाचस्पति और ‘मास्टरजी’ के नाम से सुप्रसिद्ध
 
डॉ.पदुमलाल पन्नालाल बख्शी का जन्म 27 मई 1894 को खैरागढ़ में हुआ । पिता खैरागढ के प्रतिष्ठित
 
श्री पुन्नालाल बख्शी । यह 1903 का समय था जब वे घर के साहित्यिक वातावरण से प्रभावित हो कथा-
 
साहित्य में मायालोक से परिचित हुए । चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति उपन्यास के प्रति विशेष आसक्ति के
 
कारण स्कूल से भाग खड़े हुए तथा हेड़मास्टर पंडित रविशंकर शुक्ल (म.प्र. के प्रथम मुख्यमंत्री) द्वारा
 
जमकर बेतों से पिटे गये । 1911 में जबलपुर से निकलने वाली ‘हितकारिणी’ में बख्शी की प्रथम कहानी
 
‘तारिणी’ प्रकाशित हो चुकी थी । इसके एक साल बाद अर्थात् 1912 में वे मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण हुए
 
और आगे की पढ़ाई के लिए बनारस के सेंट्रल कॉलेज में भर्ती हो गये । इसी बीच सन् 1913 में लक्ष्मी
 
देवी के साथ उनका विवाह हो गया । 1916 में उन्होंने बी.ए. की उपाधि प्राप्त की । उनका पहला निबंध
 
‘सोना निकालने वाली चींटियाँ’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ ।
 
 
 
मास्टर जी राजनांदगाँव के स्टेट हाई स्कूल में सर्वप्रथम 1916 से 1919 तक संस्कृत शिक्षक के
 
रूप में सेवा की । दूसरी बार 1929 से 1949 तक खैरागढ़ विक्टोरिया हाई स्कूल में अंगरेज़ी शिक्षक के रूप
 
में नियुक्त रहे । कुछ समय तक उन्होंने कांकेर में भी शिक्षक के रूप में काम किया । सन् 1920 में
 
सरस्वती के सहायक संपादक के रूप में नियुक्त किये गये और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती
 
के प्रधान संपादक बनाये गये जहाँ वे अपने स्वेच्छा से त्यागपत्र देने (1925) तक उस पद पर बने रहे ।
 
1927 में पुनः उन्हें सरस्वती के प्रधान संपादक के रूप में ससम्मान बुलाया गया । दो साल के बाद उनका
 
साधुमन वहाँ नहीं रम सका, उन्होंने इस्तीफा दे दिया । कारण था - संपादकीय जीवन के कटुतापूर्ण तीव्र
 
कटाक्षों से क्षुब्ध हो उठना ।
 
 
 
पुनः अपने ग्राम-घर में रमते हुए आपने 1929 से 34 तक अनेक महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों यथा-
 
 
 
पंचपात्र, विश्वसाहित्य, प्रदीप की रचना की और वे प्रकाशित हुईं । मास्टर जी की उल्लेखनीय सेवा को
 
देखते हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1949 में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया
 
। इसके ठीक एक साल बाद वे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति निर्वाचित हुए । 1951 में
 
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में जबलपुर में मास्टर जी का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया ।
 
मास्टर जी ने 1952 से 1956 तक महाकौशल के रविवासरीय अंक का संपादन कार्य भी किया तथा 1955
 
से 1956 तक खैरागढ में रहकर ही सरस्वती का संपादन कार्य किया । तीसरी बार आप 20 अगस्त 1959
 
में दिग्विजय कॉलेज राजनांदगाँव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवन पर्यन्त वहीं शिक्षकीय कार्य करते रहे
 
। इसी मध्य अर्थात् 1949 से 1957 के दरमियान ही मास्टरजी की महत्वपूर्ण संग्रह- कुछ, और कुछ,
 
यात्री, हिंदी कथा साहित्य, हिंदी साहित्य विमर्श, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिए, कथानक आदि प्रकाशित हो चुके
 
थे । 1969 में सागर विश्वविद्यालय से द्वारिका प्रसाद मिश्र (मुख्यमंत्री) द्वारा डी-लिट् की उपाधि से विभूषित
 
किया गया । इसके बाद उनका लगातार हर स्तर पर अनेक संगठनों द्वारा सम्मान होता रहा, उन्हें
 
उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा जिसमें म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन, मध्यप्रदेश शासन, आदि
 
प्रमुख हैं । 1968 का वर्ष उनके लिए अत्य़न्त महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी बीच उनकी प्रमुख और प्रसिद्ध
 
निबंध संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें हम- मेरी अपनी कथा, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, वे दिन, समस्या और
 
समाधान, नवरात्र, जिन्हें नहीं भूलूंगा, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा, अंतिम अध्याय को गिना
 
सकते हैं । 18 दिसम्बर 1971 के दिन उनका रायपुर के शासकीय डी.के हास्पीटल में उनका निधन हो गया
 
 
 
 
'''कविताएँ'''
 
 
'''मातृ मूर्ति'''
 
 
क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
 
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।
 
 
 
अति उन्नत ललाट पर हमगिरि का है मुकुट विशाल,
 
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।
 
 
 
हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
 
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।
 
 
 
भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
 
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.
 
 
 
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
 
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।
 
 
 
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
 
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।
 
 
 
दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
 
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।
 
 
 
देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
 
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।
 
 
 
(19 मई 1920 को ‘श्री शारदा’ के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित । यह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है ।)
 
 
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'''एक घनाक्षरी'''
 
 
 
सेर भर सोने को हजार मन कण्डे में
 
खाक कर छोटू वैद्य रस जो बनाते हैं ।
 
लाल उसे खाते तो यम को लजाते
 
और बूढ़े उसे खाते देव बन जाते हैं ।
 
रस है या स्वर्ग का विमान है या पुष्प रथ
 
खाने में देर नहीं, स्वर्ग ही सिधाते हैं ।
 
सुलभ हुआ है खैरागढ़ में स्वर्गवास
 
और लूट घन छोटू वैद्य सुयश कमाते हैं ।
 
 
 
(प्रेमा, अप्रैल 1931 में प्रकाशित)
 
 
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'''दो-चार'''
 
 
 
भाव रस अलंकार से हीन, अर्थ-गौरव से शून्य असार ।
 
नाम ही है वस जिनमें, पद्य ये हैं ऐसे दो-चार ।
 
बिल्व पत्रों का शुष्क समूह, कब किसी से आया है काम,
 
उन्हीं से होता जग को तोष तुम्हारा हो यदि उन पर नाम ।
 
लिख दिया है बस अपना नाम और क्या है लिखने की बात ?
 
नाम ही एकमात्र है सत्य और है नाथ ! वही पर्याप्त
 
पड़ेगी जब तक जग की दृष्टि, रहेंगे तब तक क्या ये स्पष्ट ?
 
किन्तु तुम तो मत जाना भूल, नाम का गौरव हो मत नष्ट ।
 
 
(‘प्रेमा’, दिसम्बर 1930 में प्रकाशित)
 
कविताएं- पदुमलाल पन्नलाल बख्शी
 
चयन- जयप्रकाश मानस
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