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सरे आम नीलाम जिंन्दगी/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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12:03, 25 फ़रवरी 2011
हाथों अपने दाम।
ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे
लहरों में विश्राम।।
गली गली में टंगे हुये हैं,
दहशत के पैगाम ।
</poem>
Dr. ashok shukla
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