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उषा / शमशेर बहादुर सिंह

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|संग्रह=कुछ कविताएँ / शमशेर बहादुर सिंह
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे<br><br>
भोर का नभ<br><br>
राख से लीपा हुआ चौका<br>(अभी गीला पड़ा है)<br><br>
बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से<br>कि धुल गयी हो<br><br>
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक<br>:: मल दी हो किसी ने<br><br>
नील जल में या किसी की<br>:: गौर झिलमिल देह<br>जैसे हिल रही हो।<br><br>हो ।
और...<br>:: जादू टूटता है इस उषा का अब<br>सूर्योदय हो रहा है।<br>
 (कविता -संग्रह, "टूटी हुई बिखरी हुई" से)</poem>
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