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|रचनाकार=हरे प्रकाश उपाध्याय
|संग्रह=खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ / हरे प्रकाश उपाध्याय}}
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'''मास्टर साहब'''
 
हमारी पीठ पर आपके शब्दों का बोझ
दिमाग में बैठ गयीं गईं पढ़ाइयाँ
हमारी हथेलियों पर
आपकी छड़ियों के निशान
न जाने कब तक रहेंगे
मिटेंगे तो न जाने कैसे दाग़ छोड़ेंगे
रह -रहकर मन में उठ रहे हैं सवाल हमें जो बनना था- अपने लिये लिए बनना था
पर बार-बार हमें फटकारना
धोबी के पाट पर कपड़ों -सा फींचना-धोना
हम जान नहीं सके
अपने लिये लिए बार-बार
आपका परेशान होना
मास्टर साहब! हमारी कापियों में
भरी हैं आपकी हिदायतें
आपके हस्ताक्षर सहित
दिन, महीना, बर्ष साफ़-साफ़ लिखा है आप जैसे दिल पर उगे हैं
नहीं मिटेंगे इस जनम में
काँपियाँ कापियाँ तो किसी दिन बस्ते से निकाली जाएँगी
और बिक जाएँगी बनिये की दुकान पर
पर आपके हस्ताक्षरों पर बैठकर
रसोई-रसोई पहुँचेगा
हिदायतें भर -बाज़ार घूमेंगी
इस सड़क से उस सड़क
क्लास रूप -रूम में तेज तेज़ बोली आपकी बातें
हवा में घुली हैं मास्टर साहब
जिसका जिनका अनुभव हमारे फेफड़े हर साँस में करते हैं और करेंगे। करेंगे । दीया बुझने तक।तक ।
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