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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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शक्तिशाली--हाँ, बहुत ही शक्तिशाली है समय यह !
अन्यथा परिचय बताकर-मैं उपेक्षित नहीं रहता !
कहीं ऐसा तो नहीं : मैं आज तक केवल कथा-नायक रहा !
अभिव्यक्ति का माध्यम : जिसे केवल निजी सुविधा-हिते-
निर्मित किया था कथा लेखक ने !
क्या यही सच है कि त्रेता में --अयोध्या के यशस्वी राजकुल में
जन्म जिसने लिया था - वह कुछ नहीं था ।
मात्र कथ्याधार !
कथ्याधार : दशरथ-अजिर में जो विचरता था !
किया जिसने ताड़का का वध - अहिल्या का किया उद्धार !
जिसको देख-सारे जनकपुर के ’नयन बिनु बानी’ हुए थे !
मात्र कथ्याधार ! जिसने पिता के आदेश पर सब राजसुख त्यागा -
और वन-वन फिरा चौदह वर्ष तापस-वेष धारे !
क्या दशानन सदृश योद्धा का किया था उसी ने संहार ?
नहीं - निश्चित नहीं - वह नहीं था मात्र कथ्याधार !
वह था योगिनोऽस्मिन् रमन्ते !
रमन्ते योगिनोऽस्मिन् : अहम् !
अहम् : दाशरथेय-राघव-राम !
जिसके सामने है --
एक लम्बी यात्रा का अन्त-अनुसन्धान !
यात्र्रा : निर्लक्ष्य !
शाश्वत अन्त !
अन्त : जिससे जुड़ा है संदर्भ जीवन का !
रोटियाँ-कपड़े-मकान !
मान-मर्यादा-प्रतिष्ठा !
लक्ष्य करके जिसे युग का अर्थतांत्रिक
पढ़ रहा है मंत्र !
और फेंके जा रहा है घुटन-कुठा-टीस-टूटन !
उग रहे हैं पर्तियों पर महल !
आदमी पर यंत्र !
तांत्रिक पढ़ रहा है मंत्र
और मेरे सामने है वही शाश्वत अन्त !
वन-वन फिर रहा हूँ मैं !
वन : जहाँ पर उगी हैं लाशें !
बोलती-हँसती-किलकती-सिसकती या चीखती ...!
जो रचाकर फिर रही हैं स्वाँग जीवन का !
नकल करना भी नहीं आता जिन्हें असली हँसी का !
मकर-क्रन्दन रुदन का पर्याय है जिनके !

एक युग बीता भटकते हुए इस देही विजन में
मत्स्यगंधी मोड़ भी आए हजारों !
नालियों को देखकर यह भान भी होता रहा है
अन्न जैसी वस्तु भी उपलब्ध है शायद यहाँ पर !
किन्तु
भूखे पेट बढ़ता जा रह है इसी आशा में -
बहुत सम्भव है कि हो अवशेष कोई तृण अभी तक
भीलनी की जीर्ण कुटिया कास !
और उस पर धरी हो उसकी सजल आँखें !
जो सहज ही विदा बेला में अचानक उमड़ आई थीं
और जिनके ती बैठी लग रही थी
एक लम्बी अवधि वाली वापसी की वह प्रतिक्षा
[आज तक जो चल रही है]
काश! वे आँखें कहीं होतीं !
उन्हें ही मैं समझ लेता बेर !
क्योंकि अब ऐसा नहीं कोई
कहेगा जो : आँ ख भी ल नी की ना थ खा ये !

साक्षी आखिर बनेंगे अग्नि किस-किसके ?
और किस-किसके लिए उद्विग्न-पागल बनेंगे पवनेय ?
लोहे के भयानक आदमी ने मार डाला
मौ कुहरिल साँझ की आँखें बचाकर
भाव-शासित वेदना के मूर्ख आत्मज को !
एक लम्बी भीड़-चारों ओर मेरे-धरणिजाओं की लगी है ।
स्वर्ण मृग ने--जिन्हें पीछे छोड़ देने के लिए किया है मुझको बाध्य !
किस-किस के लिए मैं कहूँ अनुजों से कि जाओ छोड़ आओ इन्हें वन में !
पाण्डुवर्णा सभी -- सबके पाँव भारी हैं !
स्वर्ण प्रतिमा बनेगी किसकी ?
और किस-किसको मिलेंगे वाल्मीकिन !
कुश नहीं होंगे !
अकेले लवों का दल सामने से गुजर जाएगा !
और सिर पर हाथ देकर सोचता ही रहूँगा मैं :
दिग्विजय का अश्व मेरा घूम आएगा धरा सारी ?
नहीं रोकेगा उसे कोई ?
सप्तकाण्डी ही रहेगी नयी रामायण !
क्या बनों में ही रहेंगी जनक-नन्दिनियाँ ?
नहीं आयेंगी अयोध्या में कभी भी ?
क्या किसी लव को न आएगी पिता की याद ?
हारकर क्या मुझे अपने आपको ललकारना होगा ?
जूझना होगा स्वयं ही अँधेरे में ?
स्वयं पर करना पड़ेगा घात-प्रत्याघात ?
स्वयं से खानी पड़ेगी आज मुझको मात ?
अपनी ही धमनियों में उबलते रक्त से करना पड़ेगा स्नान ?
अन्ततः मैं रह न पाऊँगा अहम या राम
केवल आत्महन्ता !
आत्महन्ता मात्र !!
(1964)
</poem>
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