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14:26, 15 जुलाई 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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मौसम बदला, रुत बदली है, यूं ही नहीं दिलशाद हुए
हिन्दू-मुस्लिम एक हुए जब, तब जा कर आज़ाद हुए
रात के सारे अल्हड़ सपने, सुब्ह हुई तो टूट गए
कितने हंसमुख चेहरे रोए, कितने घर बर्बाद हुए
मालिक ने इन्सान बना कर ही भेजा था दुनिया में
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, धर्म यहाँ ईजाद हुए
जो कुर्बानी में शामिल थे, कैसे उन को ग़ैर कहा
एक कौम पर कालिख पोती, हम कितने जल्लाद हुए
हम इस युग के व्यापारी का मान बढ़ाएं, नामुमकिन
नमन हमारा उन को है जो भारत की बुनियाद हुए
नफरत की आंधी ने कितने गाँव-शहर बर्बाद किए
'श्रद्धा' लेकिन एक प्रेम से कितने घर आबाद हुए
</poem>
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