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Kavita Kosh से
तन हारा फिर भी नहीं, मन ने मानी हार
शिरस्त्राण उतारा उतरा नहीं, सिर दे दिया उतार
प्रिय लौटे, रण से उठी, प्रिया समोद, सशंक
अंग-अंग छलनी बने, फिर भी रुकी न साँस
भौं में तेवर देखके देखकर मृत्यु न आती पास
घर में बांबी बाँबी साँप की, छप्पर अग्नि-झकोर
शत्रु घुसे सीमान्त में, कब जागेगा और!
जाति मर्त्य, कुल शूरता, साहस सहज स्वभाव
इसी खड्ग की धार के, तीर हमारा गाँव
द्रोण, भीष्म, अर्जुन कहाँ! कहाँ कर्ण का गेह!
कीर्ति न मरती वीर की , मरती केवल देह
वे दिन गये कि सत्य की स्वयं मची जयकार
सान धरो तलवार पर कि म्यान धरो तलवार
मेघ न सरित न सर यहाँ, उड़ती धू-धू जलती रेत
पानी धन्य कृपाण का, सदा हरे हैं खेत
प्रिय का शंकित रण-गमन, देख प्रिया ने प्रात
पग-तल-विलुलित कच -सहित, सिर दे दिया उतारभेजा सौग़ात
रण-रव सुन बोली प्रिया, ग्रीवा फेर कृपाण
जहाँ गिरा सिर वीर का, तीरथ वही प्रयाग
वामन के-से चरण दो, रावण के-से शीश