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Kavita Kosh से
धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती,
बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में,
कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में?