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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : आदिवासी अघोषित उलगुलान ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
अल सुबह दान्डू का काफ़िलारुख़ करता है शहर की ओरऔर साँझ ढले वापस आता हैपरिन्दों के झुण्ड-सा, अजनबीयत लिए शुरू होता है दिनऔर कटती है रातअधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथकंक्रीट से दबी पगडंडी की तरहदबी रह जाती हैजीवन की पदचापबिल्कुल मौन ! वे जो नंगे पैरशिकार खेला करते थे निश्चिंतज़हर-बुझे तीर सेया खेलते थेरक्त-रंजित होलीअपने स्वत्व की आँच सेचुपचाप चले जाते खेलते हैं जंगली पगडंडियों शहर केकंक्रीटीय जंगल मेंकभी नहीं कहते किजीवन बचाने का खेलहम आदिवासी शिकारी शिकार बने फिर रहे हैंवे जानते शहर मेंअघोषित उलगुलान मेंलड़ रहे हैं जंगली जड़ी-बूटियों सेजंगलअपना इलाज करनावे जानते लड़ रहे हैं जंतुओं येनक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़गुफ़ाओं की हरकतों सेतरह टूटतीमौसम अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़ इनमें भी वही आक्रोशित हैंजो या तो अभावग्रस्त हैंया तनावग्रस्त हैंबाकी तटस्थ हैंया लूट में शामिल हैंमंत्री जी की तरहजो आदिवासीयत का मिजाज समझनाराग भूल गएसारे पेड़-पौधे, पर्वत-पहाड़रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।नदी-झरने जानते कोई नहीं बोलता इनके हालात परकोई नहीं बोलता जंगलों के कटने परपहाड़ों के टूटने परनदियों के सूखने परट्रेन की पटरी पर पड़ीतुरिया की लवारिस लाश परकोई कुछ नहीं बोलता बोलते हैंबोलने वालेकेवल सियासत की गलियों मेंआरक्षण के नाम परबोलते हैं लोग केवलउनके धर्मांतरण परचिंता है उन्हेंउनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की यह चिंता नहीं कि वे कौन रोज कंक्रीट के ओखल मेंपिसते हैं उनके तलबेऔर लोहे की ढेंकी मेंकूटती है उनकी आत्मा बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए। लड़ रहे हैं आदिवासीअघोषित उलगुलान मेंकट रहे हैं वृक्षमाफियाओं की कुल्हाड़ी से औरबढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल । दान्डू जाए तो कहाँ जाएकटते जंगल मेंया बढ़ते जंगल में ।
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