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एक भी ध्वनि
 
कहीं नहीं होती
 
सिर्फ़ एक गहरी ख़ामोशी है
 
बाहर और भीतर
 
कौन है वह ?--
 
कोई भीतर से चीख कर पूछता है
 
पर होंठ
 
सिर्फ़ हिल कर रह जाते हैं
 
और ऎसे में
 
बुझ जाती है मोमबत्ती
 
लुप्त हो जाता है
 
जीर्ण पीला प्रकाश
 
 
उठता हूँ और
 
बाहर की ओर चलता हूँ
 
एक धुँधली वीरानगी से
 
लिपटे खड़े हैं पेड़
 
रास्ते जाने-पहचाने हैं
 
फिर भी अजनबी!
 
किसके घर जाऊँ?
 
किसे जगाऊँ?
 
इस मध्य रात्रि में
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