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इलाहाबाद / रवि प्रकाश

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|रचनाकार =रवि प्रकाश
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<poem>
मैंने इस शहर को पहली बार
 
पानी के आईने में देखा
 
रेत के बीच
 
पिघलते हुए लोहे की तरह !
 
जैसे कुछ लोग बहुत दूर से
 
किसी ऊँची ढलान से
 
एक गहरी खाई में दस्तक दे रहें हैं !
एक पाँव पर खड़े होकर
 
सूर्य की पहली किरण के साथ
 
अर्घ का लोटा उठाये हुए
 
पूरी सभ्यता का भार
 
एक पैर पर लिए, निचोड़कर सूर्य का सारा ताप
 
मुझे विसर्जित कर दिया इस शहर की
 
ढलान से तंग गलियों के बीच !
आखिर मैं दंग हूँ
 
इस गहरी खाई में जहाँ इतने दरबे हैं,
 
जिसके मुख पर मकड़ियों ने जले बुन रखें हैं ,
 
हर तिराहे चोराहे पर लाल बत्ती लगा दी गई है!
 
जिसके जलते ही हम दुबक जाते हैं
 
चालीस चोरों की तरह !
 
हमने अपनी हर साँस रोजगार के रिक्क्त स्थानों में भरकर
 
लिफ़ाफ़े को चिपका दिया है !
 
उसके ऊपर गाँधी छाप डाक टिकट चिपका दिया है !
 
हमने अपने हर सपने हर जज्बात को
 
किताब के हर पन्ने पर अंडरलाइन कर दिया है !
 
लेकिन उसके भी
 
धीरे-धीरे पिला पड़ने ,सड़ने के अतिरिक्क्त
 
और कोई विकल्प सुरक्षित नहीं है !
 
लेकिन हमारे सपनो की नींव जहाँ पर है
 
वहीँ पर इतिहास का पहला प्रतिरोध दर्ज है !
 
लेकिन जब-जब इस दरबे से बाहर निकलने की कोशिश करता हूँ
 
और सोचता हूँ कि
 
ये खाई में पड़े हुए लोग
 
मेरे साथ खड़े होंगे
 
लेकिन तभी बजता है एक शंख
 
मंदिर का घड़ियाल
 
और लोग लेकर खड़े हो जातें हैं
 
लेकर मेरी अस्थियों का कलस !
 
शंख और घड़ियाल के बीच
 
मैं देखता रह जाता हूँ
 
दरबों में आत्म्हत्त्याओं का सिलसिला
 
मैं बैठ जाता हूँ और गौर करता हूँ
 
कि दरअसल,
 
जिस संस्कृति कि भट्ठी तुम
 
प्रयाग और कांची में बैठकर सुलगा रहे हो
 
उसकी आग कहीं और से नहीं
 बल्कि मेरे घर के चुल्ल्हे चुलल्हे से मिल रही है !</poem>
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