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शांति वार्ता / अग्निशेखर

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<Poem>
हमसे कहा उन्होंने
नहीं करें अब
रिसते घावों की बात
शत्रु को नहीं देखें
संशय और संदेह से
मिलने पर करें नही
प्रश्न कोई उल्टा-सीधा

ज़रूरी है भरोसा करें फिर से
और धैर्य रखें
बदल रही है हवा-नवा
आर-पार दौड़ने लगी हैं
समझौता बसें
गलत थे युद्ध
गलत थी हिंसा
आरोप-प्रत्यारोप
मै पूछता हूँ कब तक मिटटी में दबाकर
आप रखेंगे मूल प्रश्न
बीज हैं उग आयेंगे
बार बार

ज़रूर छपने लगे हैं बयान
अधूरे हैं वे
खदेड़ा जिन्होंने हमें
प्यारी मात्रभूमि से
अब हमें चाहिए लौटना
अपने देस
अपेक्षित है हमसे
रहना अवाक
घुटें अपने भीतर
पचा लें कुछ और अपमान
सहना पड़ता है
दो में से एक को चुपचाप
जैसे सहती है धरती

खामोश रहे मेरे जीनोसईड पर
इसीलिए मुखर प्रगतिशील
हमें होना है धरती
और पचाने हैं
दुखों के पौलीथीन

जैसे दबा रहे हैं वे
प्रश्नों के बीज
</poem>
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