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इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं / शारिक़ कैफ़ी
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इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं
अब उसे ऐसे ही समझाता हूँ मैं
कुछ हवा कुछ दिल धड़कने की सदा
शोर में कुछ सुन नहीं पाता हूँ मैं
बिन कहे आऊँगा जब भी आऊँगा
मुन्तज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं
याद आती है तेरी संजीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं
फासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उसका ही कहलाता हूँ मैं </poem>
Shrddha
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