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कबीर दोहावली / पृष्ठ ३

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New page: ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । <BR/> प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवं...
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । <BR/>
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ <BR/><BR/>

तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । <BR/>
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ <BR/><BR/>

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । <BR/>
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ <BR/><BR/>

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । <BR/>
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ <BR/><BR/>

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । <BR/>
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ <BR/><BR/>

दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । <BR/>
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ <BR/><BR/>

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ <BR/><BR/>

न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । <BR/>
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ <BR/><BR/>

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ <BR/><BR/>

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । <BR/>
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ <BR/><BR/>

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । <BR/>
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ <BR/><BR/>

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । <BR/>
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ <BR/><BR/>

पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । <BR/>
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ <BR/><BR/>

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । <BR/>
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ <BR/><BR/>

बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । <BR/>
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ <BR/><BR/>

बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । <BR/>
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ <BR/><BR/>

बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । <BR/>
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ <BR/><BR/>

बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । <BR/>
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ <BR/><BR/>

बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । <BR/>
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ <BR/><BR/>

मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । <BR/>
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ <BR/><BR/>

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । <BR/>
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ <BR/><BR/>

भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ <BR/><BR/>

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/>
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ <BR/><BR/>

मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । <BR/>
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ <BR/><BR/>

माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । <BR/>
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ <BR/><BR/>

मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । <BR/>
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ <BR/><BR/>

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । <BR/>
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ <BR/><BR/>

या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । <BR/>
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ <BR/><BR/>

राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । <BR/>
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ <BR/><BR/>

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ <BR/><BR/>

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । <BR/>
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ <BR/><BR/>

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । <BR/>
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ <BR/><BR/>

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । <BR/>
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ <BR/><BR/>

साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । <BR/>
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ <BR/><BR/>

संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । <BR/>
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ <BR/><BR/>

साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । <BR/>
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ <BR/><BR/>

लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । <BR/>
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ <BR/><BR/>

हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । <BR/>
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ <BR/><BR/>

ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । <BR/>
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ <BR/><BR/>

ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । <BR/>
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ <BR/><BR/>

क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । <BR/>
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ <BR/><BR/>

राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । <BR/>
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ <BR/><BR/>
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । <BR/>
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ <BR/><BR/>

ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । <BR/>
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ <BR/><BR/>

सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । <BR/>
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ <BR/><BR/>

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । <BR/>
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ <BR/><BR/>

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । <BR/>
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ <BR/><BR/>

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । <BR/>
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ <BR/><BR/>

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । <BR/>
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । <BR/>
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । <BR/>
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ <BR/><BR/>

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । <BR/>
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ <BR/><BR/>

बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । <BR/>
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ <BR/><BR/>
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । <BR/>
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ <BR/><BR/>

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । <BR/>
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ <BR/><BR/>

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । <BR/>
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥ <BR/><BR/>

अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । <BR/>
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ <BR/><BR/>

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । <BR/>
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ <BR/><BR/>

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । <BR/>
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ <BR/><BR/>

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । <BR/>
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ <BR/><BR/>

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । <BR/>
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ <BR/><BR/>

परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ । <BR/>
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ <BR/><BR/>

पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । <BR/>
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ <BR/><BR/>

हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । <BR/>
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ <BR/><BR/>
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । <BR/>
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ <BR/><BR/>

पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । <BR/>
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ <BR/><BR/>

दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ । <BR/>
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ <BR/><BR/>

भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । <BR/>
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ <BR/><BR/>

कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । <BR/>
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ <BR/><BR/>

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । <BR/>
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ <BR/><BR/>

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । <BR/>
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥ <BR/><BR/>

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । <BR/>
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ <BR/><BR/>

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । <BR/>
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ <BR/><BR/>

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । <BR/>
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ <BR/><BR/>

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । <BR/>
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ <BR/><BR/>
भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि । <BR/>
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ <BR/><BR/>

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । <BR/>
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ <BR/><BR/>

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । <BR/>
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥ <BR/><BR/>

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । <BR/>
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥ <BR/><BR/>

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । <BR/>
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ <BR/><BR/>

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । <BR/>
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ <BR/><BR/>

स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । <BR/>
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ <BR/><BR/>

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । <BR/>
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥ <BR/><BR/>

ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं । <BR/>
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ <BR/><BR/>

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । <BR/>
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥ <BR/><BR/>

कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । <BR/>
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ <BR/><BR/>
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । <BR/>
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ <BR/><BR/>

तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । <BR/>
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ <BR/><BR/>

चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । <BR/>
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ <BR/><BR/>

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । <BR/>
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ <BR/><BR/>
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