{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गये हैं
यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गये हैं
वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन, सभी को मिर्ची लगी हुई है
हमें क्या अपना बनाया तुमने कई नज़र में खटक गये हैं</poem>