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एकलव्य की तरफ़ से / दिनेश कुशवाह

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ग़ज़ब की राम माया है
ये कैसी धूप छाया है
कि जिनके पास फंदे हैं
उन्हीं के पास दाना है ।

भला क्या भेष धारे है
वे सारा देश तारे हैं
कि उनकी कोठियों और
थालियों में भरा सोना है ।

ये कैसी अग्निदीक्षा है
कठिन कितनी परीक्षा है
कि कोदो की पढ़ाई में
किसी नर का अँगूठा है ।

ये गीता भी उन्हीं की है
गदा-गांडीव जिनके हैं
जो अपने थे वे गूँगे थे
यही तो रोना, रोना है ।

मगर जब बात बोलेगी
तो कितने भेद खोलेगी
तुम्हारा बोलना भी
इस सदी में तंत्र-टोना है । </poem>
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