922 bytes added,
23:08, 20 अक्टूबर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=निशान्त
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>सामने एक घर में
उठ रहा है धुआं
घरवालों की
आँखों और सांसो के लिए
बुरा ही सही
मुझे तो लग रहा है
बड़ा भला
धुआं उठ रहा है
तो लगता है
घर में कुछ रंध रहा है
दाल-भात
उत्सव लिए कोई पकवान
या पशुओं का चाटा-बांटा
बड़े घरों में कहाँ रहा अब धुआं
उनकी खुशहाली तो प्रकट कर देती
उनकी चमक-दमक ही
गरीब घरों की तो अब भी
धड़कन है धुआं।
</poem>