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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : ख़ूबसूरत दिन अन्वेषण ('''रचनाकार:''' [[स्वप्निल श्रीवास्तवरामनरेश त्रिपाठी ]])</div>
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मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
उसने खोल दी खिड़कियाँतू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
ढेर-सी ताज़ा हवाएँ दौड़ कर आ गईं घर मेंमेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तूमैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
ढेर-सी धूप आ गईबनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥
और घर बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।तब तू लगा हुआ था, पतितों के कोने-अतरे में बिखरने लगीसंगठन में॥
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
टंगे हुए कलैंडर बेबस गिरे हुओं के, तू बीच मेंखड़ा था।मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥
उसने घेर दी आज की तारीख़तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
तस्वीरों पर लगी धूल तेरा पता सिकंदर को साफ़ किया, मैं समझ रहा था।पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥
रैक पर सजा कर रख दीं क़िताबेंक्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥
प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥
खिड़की के बाहरआखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥
हिलती हुई टहनी को देखा और कहाकैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥
'तुम भी आओ मेरे घर तू रूप की किरन में'सौंदर्य है सुमन में।तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥
टहनी पर बैठी हुई बुलबुलतू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥
उल्लास हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।देखूँ तुझे दृगों में फ़ुदकती रही, मन में तथा वचन में॥
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥
पहली बार वह अपने घर दुख में देख रहा था इतना ख़ूबसूरत दिन । न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥
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