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दोनों सह रहे हैं यहाँ !
औ’ ग़मगु़सार हमारे,
जुटे हैं दोनों वहाँ,
तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”
और फिर खिलखिला के हँस दी,
और कही मुझसे:
“धरा से
और गगन
से दूर
बसाएँगे जहाँ !”
बात नादान सी बदली की,
लगा, ये पगली
जो बदली
है हू-ब-हू
मुझ सी...
ठहरती, उडती, बरसती है,
   मैंने बदली से पूछा:“तू भला क्यूँ रोती है?ये कीमती गुहर, क्यूँ इस तरह से खोती है? यहाँ बरसातबेमौसम ये कैसी होती है?” वो बोली: “दास्ताँ मेरी भी तेरे जैसी है ! बताऊँ क्या कि मुझपे बीत रही कैसी है ! नमी जैसी तेरी, मेरी भी ठीक वैसी है !” उसी फ़ुर्क़त के सदमे,दोनों सह रहे हैं यहाँ !औ’ ग़मगु़सार हमारे, जुटे हैं दोनों वहाँ, तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा ! जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !” और फिर खिलखिला के हँस दी, और कही मुझसे:“धरा से और गगन से दूर बसाएँगे जहाँ !” बात नादान सी बदली की,सोच में डुबो गई... लगा, ये पगली जो बदली है हू-ब-हू मुझ सी... ठहरती, उडती, बरसती है, फिर भी हँसती है !
कभी तो रोके उसे कोई,
और सवाल करे...