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फिर बढ़ाना द्वार पर पाबंदियां /वीरेन्द्र खरे अकेला
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15:11, 3 फ़रवरी 2012
<poem>
फिर बढ़ाना द्वार पे पाबंदियाँ
पहले
बनवा
सुधरा
लो ये टूटी खिड़कियाँ
दौड़ने के गुर सिखाए किसलिए
Tanvir Qazee
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