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यह सुख सूरदास कैं नैननि, दिन-दिन दूनौ हो ॥<br><br>
भावार्थ :-- (माता गा रही हैं) `कन्हैया! पलने में झूल! मैं तेरे इस चन्द्रमुख की बलिहारी जाऊँ जो अपार शोभा से अलग ही (अद्भुत रूप से) परिपूर्ण है । `माई री!' (पूतना का स्मरण करके यह उद्गार करके तब प्रार्थना करती हैं-) दैव! मैं तेरे पैरौं पड़ती हूँ, इस कमललोचन से छल करने इस व्रज में जो कोई आवे,उसे तू उस पूतना के समान ही तुरन्त नष्ट कर देना । सुना है तू महान् देवता है, संसार को पवित्र करने वाला है, इस कुलका कुल का स्वामी है, सो मैं तेरे चरणों की पूजा करूँगी, मेरे इस बालक को झटपट बड़ा कर दे । मेरा शिशु द्वितीया के चन्द्रमा की भाँति बढ़े और यह माता यशोदा उसे देखे ।' सूरदास जी कहते हैं -मेरे नेत्रों के लिये भी यह सुख दिनों-दिन दुगुना बढ़ता रहे ।
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