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कहि जन सूर कहाँ लौं बरनौं, धन्य नंद जीवन जग तोलनि ॥<br><br>
भावार्थ :-- नंद-भवन के आँगन की मणिमय भूमि पर बालक्रीड़ा से श्याम के घूमने तथा तोतली वाणीपर वाणी पर मैं बार-बार बलिहारी जाता हूँ । गले में कठुला है, टेढ़े नखों वाला बघनखा है और हीरों की माला है, जिसमें बहुत से अमूल्य लाल लगे हैं, कमल के समान मुख हैं, गोरोचन का तिलक लगा है, अलकें लटकी हुई हैं और भौंरों के समान हिलती हैं । हाथ में लिये मक्खन को मुखसे मुख से लगाते हैं, कुछ खाते हैं और कुछ कपोलों में लग गया है । यह सेवक सूरदास कहाँ तक वर्णन करे, श्रीनन्दराय जी का जीवन धन्य है--संसार में अपनी तुलना वह स्वयं ही है ।