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<Poem>
भगत सिंह!
कुछ सिरफिरे-से लोग तुमको याद करते हैं
जिनकी सोच की शिराओं में तुम लहू बनकर बहते हो
जिनकी साँसों की सफ़ेद सतह पर
वक़्त-बेवक़्त तुम्हारे ‘ख़याल की बिजली’ कौंध जाती है
मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ भगत!
जो तुम्हारी जन्मतिथि पर,
‘इंक़लाब-इंक़लाब’ चिल्लाते हैं और आँखों में
सफ़ेद और गेरुआ रंगों की साज़िश का ज़हर रखते हैं
जिसकी हर बूँद में
अफ़ीम की एक पूरी दुनिया होती है
जिसके नशे में गुम है आज सारा भारत
बड़े तूफ़ान की आशंका लगती है!
मैं उनकी बात कर रहा हूँ भगत!
जो समझते हैं कि तुम्हारी ज़रूरत आज भी उतनी ही है
जितनी उस वक़्त थी
(मुझे लगता है कि हर शख़्स में एक भगत सिंह होता है)
तुम्हारे और मेरे वक़्त में बहुत फ़र्क आया है ‘भगत’
तुम ज़मीन में बंदूक बोते थे
बारूद की फसल तो हम भी काटते हैं
मगर हमारे उद्देश्य बदल गए हैं
तुम्हारा उद्देश्य दूसरों से ख़ुद को बचाना था
हमारा उद्देश्य दूसरों को ख़ुद से मिटाना है!
काश! कि यह बात हम सब समझ पाते
और अपने भीतर के भगत सिंह को जगाते!
<Poem>
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