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'''। दर्द दीवाना है हीर का । हीर दीवानी है दर्द की ।'''
हीर का यह काव्य संग्रह , मोहब्बत की अदीम मिसाल--[[इमरोज़]] और [[अमृता प्रीतम|अमृता]] को समर्पित है ।
इस संग्रह में हीर जी की ६१ नज़्में संग्रहित हैं ।
जब दर्द पास आ मुस्कराने लगता है --मोहब्बत जैसे कुछ पल के लिए ही सही , साँस लेने लगती है दर्द के आगोश में ।
हीर जी , अपना जन्मदिन [[अमृता प्रीतम]] के जन्मदिन ३१ अगस्त को ही मनाती हैं । एक नज़्म [[अमृता प्रीतम|अमृता]] जी को भेंट करते हुए लिखती हैं--
उसने कहा है अगले जन्म में
'''दर्द की एक दौलतमंद कवयित्री....'''
प्रेम की तृष्‍णा, उपेक्षा, एकाकीपन-जनित नैराश्य, संघर्ष का सातत्य, टूटन, बिखराव, दर्द, आँसू, आहें, कराहें- ये सब ब्लॉग-जगत की सुपरिचित कवयित्री [[हरकीरत ‘हीर’ हकीर]] के काव्योत्पाद के आधारभूत अवयव हैं। वस्तुतः वे ‘दर्द’ की एक दौलतमंद कवयित्री हैं; दर्द जैसे बरस पड़ा हो, काग़ज़ पर! उनके दर्द की यह बरसात शब्द-देह धारणकर कभी नज़्म, तो कभी क्षणिका बन जाती है...जिनसे गुज़रना आँसुओं के काव्यानुवाद से गुज़रना है। साथ ही, सिसकियों के समूचे समुच्चय का श्रवण-साक्षी बनना भी। रचनान्त में पाठक के मुँह से पीड़ा की सघनानुभूति से सनी एक गहरी ‘आह’ निकल पड़ती है! तदनन्तर वह महसूस करने लगता है- ‘कोई शीशा कहीं गहरे में टूटा है...!’
यहाँ प्रसंगतः पी.बी. शेली याद आ जाते हैं- ‘...अवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्‌ज़ आर दोज़, दैट टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट।’ कवयित्री के पीराक्रान्त हृदय की यह अभिव्यक्ति किसी को मिठास-युक्त लगेगी, तो किसी को नैराश्य-युक्त! बहरहाल हरकीरत के लिए तो यह पीर-पगी काव्याभिव्यक्ति कुछ पल की राहत का साधन है...‘पीर का निकासमार्ग’ है। दूसरे शब्दों ‘कोई शीशा कहीं गहरे में कहें... तो कविता, कवयित्री के अश्रुस्नात ‘दर्द’ की एकल ग्राहक है, जिसकी सन्निधि में वह स्वयं को हल्का कर लेती है। बक़ौल हरकीरत, ‘इस बदलते वक़्त में हर चीज़ बिकती टूटा है...बस दर्द नहीं बिकता!’ ऐसे में कविता अपने ममतामयी आँचल में कवयित्री की आँख से झरते अश्रुकणों को थाम लेती है। स्त्री-विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर उसके अश्रुकण नारी-वर्ग की प्रतिनिधिक व्यथा-कथा भी लिखते नज़र आने लगते हैं, जिसमें शोषण-उत्पीड़न, आकांक्षाओं का दमन और इतस्ततः विद्रोही तेवर भी साफ़ झलकते हैं।
यहाँ प्रसंगतः पी.बी. शेली याद आ जाते हैं- ‘...अवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्‌ज़ आर दोज़, दैट टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट।’ कवयित्री के पीराक्रान्त हृदय की यह अभिव्यक्ति किसी को मिठास-युक्त लगेगी, तो किसी को नैराश्य-युक्त! बहरहाल हरकीरत के लिए तो यह पीर-पगी काव्याभिव्यक्ति कुछ पल की राहत का साधन है...‘पीर का निकासमार्ग’ है। दूसरे शब्दों में कहें... तो कविता, कवयित्री के अश्रुस्नात ‘दर्द’ की एकल ग्राहक है, जिसकी सन्निधि में वह स्वयं को हल्का कर लेती है। बक़ौल हरकीरत, ‘इस बदलते वक़्त में हर चीज़ बिकती है...बस दर्द नहीं बिकता!’ ऐसे में कविता अपने ममतामयी आँचल में कवयित्री की आँख से झरते अश्रुकणों को थाम लेती है। स्त्री-विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर उसके अश्रुकण नारी-वर्ग की प्रतिनिधिक व्यथा-कथा भी लिखते नज़र आने लगते हैं, जिसमें शोषण-उत्पीड़न, आकांक्षाओं का दमन और इतस्ततः विद्रोही तेवर भी साफ़ झलकते हैं। सारतः अगर जीवन में ‘दर्द’ है, तो फिर कितना भी ‘दमन’ किया जाय... उसे कितना भी छिपाया जाय, अन्ततः उसकी ‘महक’ फ़िज़ाओं में आ ही जाती है। हरकीरत हीर के पुर-अश्क ‘दर्द की महक’ नज़्मों के एक ख़ूबसूरत गुलदस्ते के रूप में संग्रहीत होकर पाठकों के बीच यथोचित समादर पायेगी, इसी आदमक़द शुभकामना के साथ....
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समीक्षक '''जितेन्द्र ‘जौहर’'''
सोनभद्र-18 (उप्र)
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