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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
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<poem>
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़<br>परित्यक्त सूनी बावड़ी<br>के भीतरी<br>ठण्डे अंधेरे में<br>बसी गहराइयाँ जल की...<br>सीढ़ियाँ डूबी अनेकों<br>उस पुराने घिरे पानी में...<br>समझ में आ न सकता हो<br>कि जैसे बात का आधार<br>लेकिन बात गहरी हो।<br><br> बावड़ी को घेर<br>डालें खूब उलझी हैं,<br>खड़े हैं मौन औदुम्बर।<br>व शाखों पर<br>
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।<br>विद्युत शत पुण्यों का आभास <br> जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर<br>हवा में तैर <br> बनता है गहन संदेह<br>अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि<br>दिल में एक खटके सी लगी रहती।<br><br> बावड़ी की इन मुंडेरों पर<br>मनोहर हरी कुहनी टेक<br>बैठी है टगर<br>ले पुष्प तारे-श्वेत<br><br>
उसके पास <br>बावड़ी की इन मुंडेरों पर लाल फूलों का लहकता झौंर--<br>मनोहर हरी कुहनी टेक मेरी वह कन्हेर...<br>बैठी है टगर वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर<br>अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का<br>शून्य अम्बर ताकता है।<br><br>ले पुष्प तारे-श्वेत
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य<br>ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,<br>व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,<br>हड़बड़ाहट शब्द पागल से।<br>गहन अनुमानिता<br>तन की मलिनता<br>दूर करने के लिए प्रतिपल<br>उसके पास पाप छाया दूर करने के लिए, दिनलाल फूलों का लहकता झौंर-रात<br>स्वच्छ करने--<br>ब्रह्मराक्षस<br>मेरी वह कन्हेर... घिस रहा है देह<br>वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर हाथ के पंजे बराबर,<br>बाँह-छाती-अंधियारा खुला मुँह छपाछप<br>बावड़ी का खूब करते साफ़,<br>फिर भी मैल<br>फिर भी मैल!!<br>शून्य अम्बर ताकता है।
और... होठों से<br>बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चारब्रह्मराक्षस एक पैठा है,<br>अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वारव भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,<br>मस्तक हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की लकीरें<br>मलिनता बुन रहीं<br>दूर करने के लिए प्रतिपल आलोचनाओं पाप छाया दूर करने के चमकते तार!!<br>लिए, दिन-रात उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह....<br>स्वच्छ करने-- प्राण में संवेदना ब्रह्मराक्षस घिस रहा है स्याहदेह हाथ के पंजे बराबर, बाँह-छाती-मुँह छपाछप खूब करते साफ़, फिर भी मैल फिर भी मैल!!<br>
किन्तुऔर... होठों से अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार, गहरी बावड़ी<br>अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार, मस्तक की भीतरी दीवार पर<br>लकीरें तिरछी गिरी रवि-रश्मि <br>बुन रहीं आलोचनाओं के उड़ते हुए परमाणु, जब<br>चमकते तार!! तल तक पहुँचते हैं कभी<br>उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह.... तब ब्रह्मराक्षस समझता प्राण में संवेदना है, सूर्य ने <br>झुककर नमस्ते कर दिया।<br><br>स्याह!!
पथ भूलकर जब चांदनी <br>किन्तु, गहरी बावड़ी की किरन टकराये<br>कहीं भीतरी दीवार परतिरछी गिरी रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु,<br>जब तल तक पहुँचते हैं कभी तब ब्रह्मराक्षस समझता है<br>वन्दना की चांदनी , सूर्य ने<br> ज्ञान गुरू माना उसे।<br>झुककर नमस्ते कर दिया।
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही<br>पथ भूलकर जब चांदनी करता रहा अनुभव कि नभ ने भी<br>की किरन टकराये विनत हो मान ली कहीं दीवार पर, तब ब्रह्मराक्षस समझता है श्रेष्ठता उसकी!!<br><br>वन्दना की चांदनी ने ज्ञान गुरू माना उसे।
और तब दुगुने भयानक ओज से<br>पहचान वाला अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन<br>सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से<br>मधुर वैदिक ऋचाओं तक<br>व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,<br>सब प्रेमियों तक<br>वही करता रहा अनुभव कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी<br>कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी नभ ने भी<br>सभी के सिद्ध-अंतों का<br>नया व्याख्यान करता वह<br>नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम<br>प्राक्तन बावड़ी की<br>उन घनी गहराईयों में शून्य।<br><br>विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
......ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता<br>और तब दुगुने भयानक ओज से गहराईयों पहचान वाला मन सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से उठ रही ध्वनियाँ, अतः<br>उद्भ्रान्त शब्दों मधुर वैदिक ऋचाओं तक व तब से आज तक के नये आवर्त में<br>सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम, हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटतासब प्रेमियों तक कि मार्क्स,<br>एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी वह रूप अपने बिम्ब से कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी जूझ<br>विकृताकारसभी के सिद्ध-कृति<br>अंतों का है बन रहा<br>नया व्याख्यान करता वह ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ<br><br>नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम प्राक्तन बावड़ी की उन घनी गहराईयों में शून्य।
बावड़ी की इन मुंडेरों पर<br>......ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं<br>गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः टगर उद्भ्रान्त शब्दों के पुष्प-तारे श्वेत<br>नये आवर्त में :::वे ध्वनियाँ!<br>हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता, सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल<br>वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ विकृताकार-कृति सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर<br>सुन बन रहा हूँ मैं वही<br>पागल प्रतीकों में कही जाती हुई<br>वह ट्रेजिडी<br>जो बावड़ी में अड़ गयी।<br><br>ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
x x x बावड़ी की इन मुंडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं टगर के पुष्प-तारे श्वेत :::वे ध्वनियाँ! सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर सुन रहा हूँ मैं वही पागल प्रतीकों में कही जाती हुई वह ट्रेजिडी जो बावड़ी में अड़ गयी। <br><br>
खूब ऊँचा एक जीना साँवला<br>:::उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ...<br>वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।<br>एक चढ़ना औ' उतरना,<br>पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,<br>मोच पैरों में<br>व छाती पर अनेकों घाव।<br>बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष<br>:::वे भी उग्रतर<br>अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर<br>गहन किंचित सफलता,<br>अति भव्य असफलता<br>...अतिरेकवादी पूर्णता<br>:::की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...<br>ज्यामितिक संगति-गणित<br>की दृष्टि के कृत<br>:::भव्य नैतिक मान<br>आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...<br>...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना<br>:::कब रहा आसान<br>मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!<br><br>x x x
रवि निकलता <br>खूब ऊँचा एक जीना साँवला लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता<br>:::उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ... प्रवाहित कर दीवारों परवे एक आभ्यंतर निराले लोक की। एक चढ़ना औ' उतरना,<br>उदित होता चन्द्र<br>पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना, मोच पैरों में व्रण व छाती पर बांध देता<br>अनेकों घाव। श्वेतबुरे-धौली पट्टियाँ<br>अच्छे-बीच का संघर्ष उद्विग्न भालों पर<br>:::वे भी उग्रतर सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए<br>अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर अनगिन दशमलव से<br>गहन किंचित सफलता, दशमलवअति भव्य असफलता ...अतिरेकवादी पूर्णता :::की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं... ज्यामितिक संगति-बिन्दुओं गणित की दृष्टि के सर्वतः<br>कृत पसरे हुए उलझे गणित मैदान में<br>:::भव्य नैतिक मान मारा गया, वह काम आया,<br>आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान... और वह पसरा पड़ा है...<br>अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना वक्ष-बाँहें खुली फैलीं<br>:::कब रहा आसान एक शोधक की।<br><br>मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासादरवि निकलता लाल चिन्ता की रुधिर-सासरिता प्रवाहित कर दीवारों पर,<br>प्रासाद में जीना<br>उदित होता चन्द्र व जीने की अकेली सीढ़ियाँ<br>व्रण पर बांध देता चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।<br>वे भाव-संगत तर्कश्वेत-संगत<br>धौली पट्टियाँ कार्य सामंजस्य-योजित<br>उद्विग्न भालों पर समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ<br>सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए हम छोड़ दें उसके लिए।<br>अनगिन दशमलव से उस भाव तर्क व कार्यदशमलव-सामंजस्य-योजन-<br>बिन्दुओं के सर्वतः शोध पसरे हुए उलझे गणित मैदान में<br>सब पण्डितोंमारा गया, वह काम आया, सब चिन्तकों के पास<br>और वह गुरू प्राप्त करने के लिए <br>पसरा पड़ा है... वक्ष-बाँहें खुली फैलीं भटका!!<br><br>एक शोधक की।
किन्तु युग बदला व आया कीर्तिव्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-व्यवसायी<br>सा, ...लाभकारी कार्य प्रासाद में से धन,<br>जीना धन में से हृदयजीने की अकेली सीढ़ियाँ चढ़ना बहुत मुश्किल रहा। वे भाव-मन,<br>संगत तर्क-संगत और, धनकार्य सामंजस्य-अभिभूत अन्तःकरण में से<br>योजित सत्य समीकरणों के गणित की झाईं <br>सीढ़ियाँ हम छोड़ दें उसके लिए। उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन- शोध में सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास वह गुरू प्राप्त करने के लिए :::निरन्तर चिलचिलाती थी।<br><br>भटका!!
आत्मचेतस् किन्तु इस<br>युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...<br>विश्वचेतस् बे-बनाव!!<br>महत्ता के चरण लाभकारी कार्य में था<br>विषादाकुल मन!<br>मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि<br>तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर<br>बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य<br>उसकी महत्ता!<br>धन, उस महत्ता का<br>धन में से हृदय-मन, हम सरीखों के लिए उपयोगऔर,<br>धन-अभिभूत अन्तःकरण में से सत्य की झाईं उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!<br><br>:::निरन्तर चिलचिलाती थी।
पिस गया वह भीतरी<br>आत्मचेतस् किन्तु इस औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीचव्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन... विश्वचेतस् बे-बनाव!! महत्ता के चरण में था विषादाकुल मन! मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य उसकी महत्ता! व उस महत्ता का हम सरीखों के लिए उपयोग,<br>ऐसी ट्रेजिडी है नीचउस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!<br>
बावड़ी में पिस गया वह स्वयं<br>पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा<br>वह कोठरी में किस तरह<br>अपना गणित करता रहा<br>भीतरी औ' मर गया...<br>बाहरी दो कठिन पाटों बीच, वह सघन झाड़ी के कँटीले<br>तम-विवर में<br>मरे पक्षी-सा<br>विदा ही हो गया<br>वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी<br>यह क्यों हुआऐसी ट्रेजिडी है नीच!<br>क्यों यह हुआ!!<br>मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य<br>होना चाहता<br>जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,<br>उसकी वेदना का स्रोत<br>संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक<br>पहुँचा सकूँ।<br><br>
बावड़ी में वह स्वयं पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा वह कोठरी में किस तरह अपना गणित करता रहा ''(कविता संग्रहमर गया... वह सघन झाड़ी के कँटीले तम-विवर में मरे पक्षी-सा विदा ही हो गया वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी यह क्यों हुआ! क्यों यह हुआ!! मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य होना चाहता जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य, "चांद उसकी वेदना का मुँह टेढ़ा है" से)''स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुँचा सकूँ। </poem>
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