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18:56, 28 सितम्बर 2007 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सूरदास
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माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।<br>
बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥<br>
सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।<br>
तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥<br>
माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।<br>
सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥<br><br>
भावार्थ :-- (माता ने कहा-)`प्यारे लाल ! जो रुचे, वह माँग लो । मेरे घर बहुत प्रकार के सभी मेवे हैं, षटरस भोजन के पदार्थ अलग रखे हैं । यह सब तुम्हारे लिये ही मैं एकत्र कर रखती हूँ, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मैं जानती हूँ । तुरंत के मथे दही से निकला अच्छा मक्खन है; उसे लाकर देती हूँ, खा लो ।' (श्यामसुन्दर बोले-) `मुझे मक्खन और दही अत्यन्त प्रिय लगता है और कुछ मुझे रुचता नहीं ' सूरदास जी कहते हैं कि मैया ने दही-मक्खन दिया; उसे खाते हुए हँस रहे हैं, माता उनका मुख देख रही है ।