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एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥ <br><br>
कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानाजर्न के लिये गए थे तब उन्हें बर्ज की याद सताती थी। वहाँ उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव रीत-िनीति नीति की, निगुणर् बर्ह्म आैर निर्गुन ब्रह्म और योग की बातें करता था। तो उन्हें चिन्ता हुई कि यह संसार मात्र विरिक्तयुक्त निगुणर् बर्ह्म निर्गुन ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिये विरह आैर और प्रेम की भी आवश्यकता है। आैर और अपने इस मित्र से वे उकताने लगे थे कि यह सदैव कहता है, कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बंधु। वे सोचते इसका सत्य कितना अपूणर् आैर भर्ामक अपूर्ण और भ्रामक है। भला कहाँ यशोदा आैर और नंद जैसे माता-पिता होने का सुख आैर और राधा के साथ बीते पलों का आनंद। आैर और तीनों लोकों में बर्ज ब्रज के गोप-गोपियों के साथ मिलकर खेलने जैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है कि द्वारा उद्धव को बर्ज ब्रज संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, वे स्व्यं स्वयं सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो कि प्रेम का ममर् मर्म ही नहीं समझता, कोरा बर्ह्मर्ज्ञान ब्रह्मज्ञान झाड़ता है।
तबहि उपंगसुत आई गए।<br>
तभी उपंग के पुत्र उद्धव आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।
दोनों सखाआें सखाओं में खास अन्तर नहीं। उद्धव का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं कि इस मेरे समान रूपवान युवक के पास काश, प्रेमपूणर् प्रेमपूर्ण बुद्धि भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं कि क्यों न उद्धव को बर्ज संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा आैर और इसे प्रेम का पाठ गोपियाँ भली भाँित भाँति पढ़ा देंगी। तब यह जान सकेगा प्रेम का ममर्।मर्म।
उधर उद्धव सोचते हैं कि वे विरह में जल रही गोपियों को निगुणर् बर्ह्म के प्रेम की शिक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिक प्रेम से की पीड़ा मुक्ति से मुक्ति दिला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं कि देखते हैं कि कौन किसे क्या सिखा कर आता है।
उद्धव पत्र गोपियों को दे देते हैं आैर और कहते हैं कि कृष्ण ने कहा है कि -
सुनौ गोपी हिर कौ संदेस।<br>