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|रचनाकार=‘शुजाअ’ खावर
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सुकूँ ज़मीने-कनाअत पे जब नज़र आया
तो आरज़ू की बुलंदी से मैं उतर आया

हुजूमे-फ़िक्र में तेरा ख़याल दर आया
कोई तो आशना इस भीड़ में नज़र आया

रक़ीब मेरे ख़िलाफ़ उसके कान भर आया
जो उस गरीब के बस का था काम कर आया

हयातो-मौत की कुछ साज़-बाज़ लगती है
तिरा ख़याल गया और चारागर आया

दिलो-दिमाग की सब नफरतें बरहना थीं
अचानक आज जो दुश्मन हमारे घर आया

जो हमसे होगा वो हम भी ज़ुरूर कर लेंगे
अगर बहार का मौसम शबाब पर आया

वो जिससे पूरा तअर्रुफ़ भी हो न पाया था
वो एक शख्स हमें याद उम्र भर आया

तिरे क़सीदे से उसका भला तो क्या होता
‘शुजाअ’ कुछ तिरा उसलूब ही निखर आया
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