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| रचनाकार= द्विजेन्द्र 'द्विज'
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<poem>
जितना दिखता हूँ मुझे उससे ज़ियादा न समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता न समझ

ये तक़ल्लुफ़<ref>औपचारिकता</ref> है इसे हर्फ़े तमन्ना<ref>इच्छा प्रकट करने वाली बात</ref> न समझ
मुस्कुराहट को महब्बत का इशारा न समझ

यह तेरी आँख के धोखे के सिवा हुछ भी नहीं
एक बहते हुए दरिया को किनारा न समझ

एक दिन चीर के निकलेंगे वो तेरी आँतें
वो भी इन्साँ हैं उन्हें अपना निवाला न समझ

वो तुझे बाँटने आया है कई टुकड़ों में
मुस्कुराते हुए शैताँ<ref>शैतान</ref> को मसीहा न समझ

जिन किताबों ने अँधेरों में डुबोया है तुझे
उन किताबों के उजाले को उजाला न समझ

छोड़ जाएगा तेरा साथ अँधेरे में यही
यह जो साया है तेरा इसको भी अपना न समझ

यह जो बिफरा तो डुबोएगा सफ़ीने<ref>जहाज़, नौकाएँ </ref> कितने
तू इसे आँख से टपका हुआ क़तरा न समझ

है तेरे साथ अगर तेरे इरादों का जुनूँ
क़ाफ़िला है तू कभी ख़ुद को अकेला न समझ

तुझ से ही माँग रहा है वो तो ख़ुद अपना वजूद<ref>अस्तित्व</ref>
ख़ुद जो साइल<ref>भिक्षुक</ref> है उसे कोई ख़लीफ़ा<ref>बादशाह</ref> न समझ

बढ़ कुछ आगे तो मिलेंगे तुझे मंज़र<ref>दृश्य</ref> भी हसीँ
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ

साथ हैं मेरे बुज़ुर्गों की दुआएँ कितनी
मैं हूँ महफ़िल तू मुझे पल को भी तन्हा न समझ

शाइरी आज भी उनकी है नई ‘द्विज’ ख़ुद को
ग़ालिब-ओ-मीर या मोमिन से भी ऊँचा न समझ
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