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अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी

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* [[अखरावट / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी]]गगन हुता नहिं महि हुती, चंद नहिं सूर ।<br>* [[अखरावट / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी]]ऐसइ अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर ॥<br><br>* [[अखरावट / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी]]* [[अखरावट / पृष्ठ 4 / मलिक मोहम्मद जायसी]]सोरठा* [[अखरावट / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी]] सांई केरा नावँ हिया पूर, काया भरी ।<br>मुहमद रहा न ठाँव, दूसर कोइ न समाइ अब ॥<br><br> आदिहु ते जो आदि गोसाईं । जेइ सब खेल रचा दुनियाईं ॥<br>जस खेलेसि तस जाइ न कहा । चौदह भुवन पूरि सब रहा ॥<br>एक अकेल, न दूसर जाती । उपजे सहस अठारह भाँती ॥<br>जौ वै आनि जोति निरमई । दीन्हेसि ज्ञान, समुझि मोहिं भई ॥<br>औ उन्ह आनि बार मुख खोला । भइ मुख जीभ बोल मैं बोला ॥<br>वै सब किछु, करता किछु नाहीं । जैसे चलै मेघ परछाहीं ॥<br>परगट गुपुत बिचारि सो बूझा । सो तजि दूसर और न सूझा ॥<br><br> दोहा कहौं सो ज्ञान ककहरा सब आखर महँ लेखि ।<br>पंडित पढ अखरावटी , टूटा जोरेहु देखी ॥<br><br> सोरठा हुता जो सुन्न-म-सुन्न, नावँ ना सुर सबद ।<br>तहाँ पाप नहिं पुन्न , मुहमद आपुहि आपु महँ ॥1॥<br><br> आपु अलख पहिले हुत जहाँ । नावँ न ठावँ न मूरति तहाँ ॥<br>पूर पुरान, पाप नहिं पुन्नू । गुपुत,, तें गुपुत, सुन्न तें सुन्नू ॥<br>अलख अकेल, सबद नहिं भाँती । सूरूज, चाँद; दिवस नहिं राती ॥<br>आखर, सुर, नहिं बोल, अकारा । अकथ कथा का कहौं बिचारा ॥<br>किछु कहिए तौ किछु नहिं आखौं । पै किछु मुहँ महँ, किछु हिय राखौं ॥<br>बिना उरेह अरंभ बखाना । हुता आपु महँ आपु समाना ॥<br>आस न, बास न, मानुष अँडा । भए चौखँड जो ऐस पखँडा ॥<br><br> दोहा सरग न,धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस ।<br>बजर-बीज बीरौ अस , ओहि रंग, न भेस ॥<br><br> सोरठा तब भा पुनि अंकूर, सिरजा दीपक निरमला । <br>रचा मुम्मद नूर, जगत रहा उजियार होई ॥2॥<br><br> ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ । पहिले रचा मुम्मद-नाऊँ ॥<br>तेहि कै प्रीति बीज अस जामा । भए दुइ बिरिछ सेत औ सामा ॥<br>होतै बिरवा भए दुइ पाता । पिता सरग औं धरती माता ॥<br>सूरूज, चाँद दिवस औ राती । एकहि दूसर भएउ सँघाती ॥<br>चलि सो लिखनी भइ दुइ फारा । बिरिछ एक उपनी दुइ डारा ॥<br>भेंटेन्हि जाइ पुन्नि औ पापू । दुख औ सुख, आनंद संतापू ॥<br>औ तब भए नरक बैकँठू । भल औ मंद, साँच औ झूठू ॥<br><br> दोहा नूर मुहम्मद देखि तब भा हुलास मन सोइ ।<br>पुनि इबलीस सँचारेउ, डरत रहै सब कोइ ॥<br><br> सोरठा हुता जो अकहि संग, हौं तुम्ह काहे बीछुरा ?<br>अब जिउ उठै तरंग, मुहमद कहा न जाइ किछु ॥3॥<br><br> जौ उतपति उपराजै चहा । आपनि प्रभुता आपु सौं कहा ॥<br>रहा जो एक जल गुपुत समुंदा । बरसा सहस अठारह बुँदा ॥<br>सोई अंस घटै घट मेला । ओ सोइ बरन बरन होइ खेला ॥<br>भए आपु औ कहा गोसाईं । सिर नावहु सगरिउ दुनियाईं ॥<br>आने फूल भाँति बहु फूले । बास बेधि कौतुक सब भूले ॥<br>जिया जंतु सब अस्तुति कीन्हा । भा संतोष सबै मिलि चीन्हा ॥<br>तुम करता बड सिरजन-हारा । हरता धरता सब संसारा ॥<br><br> दोहा भरा भँडार गुपुत तहँ, जहाँ छाँह नहिं धूप ।<br>पुनि अनबन परकार सौं खेला परगट रूप ॥<br><br> सोरठा  परै प्रेम के झेल, पिउ सहुँ धनि मुख सो करै ।<br>जो सिर सेंती खेल, मुहमद खेल सो प्रेम-रस ॥4॥<br><br> एक चाक सब पिंडा चढे । भाँति भाँति के भाँडा गढे ॥<br>जबहीं जगत किएउ सब साजा । आदि चहेउ आदम उपराजा ॥<br>पहिलेइ रचे चारि अढवायक । भए सब अढवैयन के नायक ॥<br>भइ आयसु चारिहु के नाऊँ । चारि वस्तु मेरवहु एक ठाऊँ॥<br>तिन्ह चारिहु कै मँदिर सँवारा । पाँच भूत तेहिह महँ पैसारा ॥<br>आपु आपु महँ अरुझी माया । ऐस न जानै दहुँ केहि काया ॥<br>नव द्वारा राखे मँझियारा । दसवँ मूँदि कै दिएउ केवारा ॥<br><br> दोहा  रकत माँसु भरि, पूरि हिय, पाँच भूत कै संग ।<br>प्रेम-देस तेहि ऊपर बाज रूप औ रंग ॥<br><br> सोरठा रहेउ न दुइ महँ बीचु , बालक जैसे गरभ महँ ।<br>जग लेइ आई मीचु, मुहमद रोएउ बिछुरि कै ॥5॥<br><br> उहँईं कीन्हेउ पिंड उरेहा । भइ सँजूत आदम कै देहा ॥<br>भइ आयसु, `यह जग भा दूजा । सब मिलि नवहु, करहु एहि पूजा ॥<br>परगट सुना सबद, सिर नावा ॥ नारद कहँ बिधि गुपुत देखावा ॥<br>तू सेवक है मोर निनारा । दसई पँवरि होसि रखवारा ॥<br>भई आयसु, जब वह सुनि पावा । उठा गरब कै सीस नवावा ॥<br>धरिमिहि धरि पापी जेइ कीन्हा । लाइ संग आदम के दीन्हा ॥<br>उठि नारद जिउ आइ सँचारा । आइ छींक, उठि दीन्ह केवारा ॥<br><br> दोहा आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कबिलास ।<br>पुनि तहँवाँ तें काढा, नारद के बिसवास ॥<br><br> सोरठा  आदि किएउ आदेश, सुन्नहिं तें अस्थूल भए । <br>आपु करै सब भेस मुहमद चादर-ओट जेउँ ॥6॥<br><br> का-करतार चहिय अस कीन्हा ? आपन दोष आन सिर दीन्हा ॥<br>खाएनि गोहूँ कुमति भुलाने । परे आइ जग महँ, पछिताने ॥<br>छोडि जमाल-जलालहि रोवा । कौन ठाँव तें दैउ बिछोवा ॥ <br>अंधकूप सगरउँ संसारू । कहाँ सो पुरुष, कहाँ मेहरारू ?॥<br>रैनि छ मास तैसि झरि लाई । रोइ रोइ आँसू नदी बहाई ।<br>पुनि माया करता कहँ भई । भा भिनसार, रैनि हटि गई ॥<br>सूरुज उए, कँवल-दल फूले । दवौ मिले पंथ कर भूले ॥<br><br> दोहा  तिन्ह संतति उपराजा भाँतिहि भाँति कुलीन ।<br>हिंदू तुरुक दुवौ भए अपने अपने दीन ॥<br><br> सोरठा  बुंदहि समुद समान, यह अचरज कासौं कहौं ?<br>जो हेरा सो हेरान, मुहमद आपुहि आपु महँ ॥7॥<br><br> खा-खेलार जस है दुइ करा । उहै रूप आदम अवतारा ॥<br>दुहूँ भाँति तस सिरजा काया । भए दुइ हाथ, भए दुइ पाया ॥<br>भए दुइ नयन स्रवन दुइ भाँती । भए दुइ अधर, दसन दुइ पाँती ॥<br>माथ सरग, धर धरती भएऊ । मिलि तिन्ह जग दूसर होइ गएऊ ॥<br>माटी माँसु, रकत भा लीरू । नसै नदी, हिय समुद गंभीरू ॥<br>रीढ सुमेरु कीन्ह तेहि केरा । हाड पहार जुरे चहुँ फेरा ॥ <br>बार बिरिछ, रोवाँ खर जामा । सूत सूत निसरे तन चामा ॥<br><br> दोहा सातौ दीप, नवौ खँड, आठौ दिसा जो आहिं । <br>जो बरम्हंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं ॥<br><br> सोरठा आगि, बाउ, जल, धूरि चारि मेरइ भाँडा गढा ।<br>आपु रहा भरि पूरि मुहमद आपुहिं आपु महँ ॥8॥<br><br> गा-गौरहु अब सुनहु गियानी । कहौं ग्यान संसार लखानी ॥<br>नासिक पुल सरात पथ चला । तेहि कर भौहैं हैं दुइ पला ॥<br>चाँद सुरुज दूनौ सुर चलहीं । सेत लिलार नखत झलमलहीं ॥<br>जागत दिन -निसि सोवत माँझा । हरष भोर, बिसमय होइ साँझा ॥<br>सुख बैकुंठ भुगुति औ भोगू । दुख है नरक, जो उपजै रोगू ॥<br>बरखा रुदन, गरज अति कोहू । बिजुरी हँसी हिवंचल छोहू ॥<br>घरी पहर बेहर हर साँसा । बीतै छऔ ऋतु, बारह मासा ॥<br><br> दोहा जुगजुग बीतै पलहि पल, अवधि घटति निति जाइ ।<br>मीचु नियर जब आवै, जानहुँ परलय आइ ॥<br><br> सोरठा जेहि घर ठग हैं पाँच, नवौ बार चहुँदिसि फिरिहिं । <br>सो घर केहि मिस बाँच ? मुहमद जौ निसि जागिए ॥9॥ <br><br> घा-घट जगत बराबर जाना । जेहि महँ धरती सरग समाना ॥<br>माथ ऊँच मक्का बन ठाऊँ । हिया मदीना नबी क नाऊँ<br>सरवन ,आँखि, नाक, मुख चारी । चारिहु सेवक लेहु बिचारी ॥<br>भाव चारि फिरिस्ते जानहु । भावै चारि यार पहिचानहुँ ॥<br>भावै चारिहु मुरसिद कहऊ । भावै चारि किताबैं पढऊ ॥<br>भावै चारि इमाम जे आगे । भावै चारि खंभ जे लागे ॥<br>भाव चारिहु जुग मति-पूरी । भावै आगि, वाउ,जल धूरी ॥<br><br> दोहा नाभि-कँवल तर नारद लिए पाँच कोटवार ।<br>नवौ दुवारि फिरै निति दसईं कर रखवार ॥ <br><br> सोरठा पवनहु तें मन चाँड, मन तें आसु उतावला ।<br>कतहुँ भेंड न डाँड, मुहमद बहुँ बिस्तार सो ॥10॥<br><br> ना-नारद तस पाहरु काया । चारा मेलि फाँद जग माया ॥<br>नाद, बेद औभूत सँचारा । सब अरुझाइ रहा संसारा ॥<br>आपु निपट निरमल होइ रहा । एकहु बार जाइ नहिं गहा ॥<br>जस चौदह खंड तैस सरीरा । जहँवैं दुख है तहँवैं पीरा ॥<br>जौन देस महँ सँवरे जहवाँ । तौन देस सो जानहु तहँवा ॥<br>देखहु मन हिरदय बसि रहा । खन महँ जाइ जहाँ कोइ चहा ॥<br>सोवत अंत अंत महँ डोलै । जब बोलै तब घट महँ बोलै ॥<br><br> दोहा तन-तुरंग पर मनुआ, मन-मस्तक पर आसु ।<br>सोई आसु बोलावई अनहद बाजा पासु ॥<br><br> सोरठा देखहु कौतुक आइ , रूख समाना बीज महँ ।<br>आपुहि खोदि जमाइ मुहमद सो फल चाखई ॥11॥<br><br> चा-चरित्र जौ चाहहु देखा । बूझहु बिधना केर अलेखा ॥<br>पवन चाहि मन बहुत उताइल । तेहिं तें परम आसु सुठि पाइल ॥<br>मन एक खंड न पहुचै पावै । आसु भुवन चौदह फिरि आवै ॥<br>भा जेहि ज्ञान हिये सो बूझै । जो धर ध्यान न मन तेहि रूझै ॥<br>पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी । देखौ जगत सो पट बिस्तारी ॥<br>हेरत दिस्टि उघरि तस आई । निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई ॥<br>पेम समुन्द सो अति अवगाहा । बूडै जगत न पावै थाहा ॥<br><br> दोहा  जबहिं नींद चख आवै उपजि उठै संसार । <br>जागत ऐस न जानै, दहुँ सौ कौन भंडार ॥<br><br> सोरठा सुन्न समुद चख माहि जल जैसी लहरैं उठहिं ।<br>उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए ॥12॥<br><br> छा-छाया जस बुंद अलोपू । ओठई सौं आनि रहा करि गोपू ॥<br>सोइ चित्त सों मनुवाँ जागै । ओहि मिलि कौतुक खेलै लागै ॥<br>देखि पिंड कहँ बोली बोलै । अब मोहिं बिनु कस नैन न खोलै ? ॥<br>परमहंस तेहि ऊपर देई । सोऽहं सोऽहं साँसै लेई ॥<br>तन सराय, मन जानहु दीया । आसु तेल, दम बाती कीआ ॥<br>दीपक महँ बिधि-जोति समानी । आपुहि बरै । निरबानी ॥<br>निघटे तेल झूरि भइ बाती । गा दीपक बुझि, अँधियरि राती ॥<br><br> दोहा गा सो प्रान-परैवा, कै पींजर-तन छूँछ ।<br>मुए पिंड कस फूलै ? चेला गुरु सन पूछ ॥<br><br> सोरठा  बिगरि गए सब नावँ, हाथ पाँव मुँह सीस धर ।<br>तोर नावँ केहि ठाँव, मुहमद सोइ बिचारिए ॥13॥<br><br> जा-जानहु अस तन महँ भेदू । जैसे रहै अंड महँ मेदू ॥<br>बिरिछ एक लागी दुइ डारा । एकहिं तें नाना परकारा ॥<br>मातु के रकत पिता के बिंदू । उपने दवौ तुरुक औ हिंदू ॥<br>रकत हुतें तन भए चौरंगा । बिदु हुतें जिउ पाँचौ संगा ॥<br>जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वै पाँचौ सरगहि जाहीं ॥<br>फूलै पवन, पानि सब गरई । अगिनि जारि तन माटी करई ॥<br>जस वै सरग के मारग माहाँ । तस ए धरति देखि चित चाहा ॥<br><br> दोहा  जस तन तस यह धरती, जस मन तैस अकास ।<br>परमहंस तेहि मानस, जैसि फूल महँ बास ॥<br><br> सोरठा तन दरपन कहँ साजु दरसन दखा जौ चहै ।<br>मन सौं लीजिय माँजि मुहमद निरमल होइ दिआ ॥14॥<br><br> झा-झाँखर-तन महँ मन भूलै । काटन्ह माँह फूल जनु फूलै ॥<br>देखहुँ परमहंस परछाहीं । नयन जोति सो बिछुरति नाही ॥<br>जगमग जल महँ दीखत जैसे । नाहिं मिला, नहिं बेहरा तैसे ॥<br>जस दरपन महँ दरसन देखा । हिय निरमल तेहि महँ जग देखा ॥<br>तेहि संग लागीं पँचौ छाया । काम, कोह, तिस्ना, मद, माया ॥<br>चख महँ नियर, निहारत दूरी । सब घट माँह रहा भरिपूरी ॥<br>पवन न उडै, न भीजै पानी । अगिनि जरै जस निरमल बानी ॥<br> दोहा  दूध माँझ जस घीउ है, समुद माँह जस मोति ।<br>नैन मींजि जो देखहु, चमकि ऊठै तस जोति ॥<br><br> सोरठा एकहि तें दुइ होइ, दुइ सौं राज न चलि सकै ।<br>बीचु तें आपुहि खोइ, मुहमद एकै होइ रहु ॥15॥<br><br> ना-नगरी काया बिधि कीन्हा । लेइ खोजा पावा, तेइ चीन्हा ॥<br>तन महँ जोग भोग औ रोगू । सूझि परै संसार-सँजोगू ॥<br>रामपुरी औ कीन्ह कुकरमा । मौन लाइ सोधै अस्तर माँ ॥<br>पै सुठि अगम पंथ बड बाँका । तस मारग जस सुई क नाका ॥<br>बाँक चढाव, सात खँड ऊँचा । चारि बसेरे जाइ पहूँचा ॥<br>जस सुमेरु पर अमृत मूरी । देखत नियर, चढत बडि दूरी ॥<br>नाँघि हिवंचल जो तहँ जाई । अमृत-मूरि-पाइ सो खाई ॥<br><br> दोहा  एहि बाट पर नारद बैठ कटक कै साज ।<br>जो ओहि पेलि पईठै, करै दुवौ जग राज ॥<br><br> सोरठा `हौं' कहतै भए ओट, पियै खंड मोसौं किएउ ।<br>भए बहु फाटक कोट, मुहमद अब कैसे मिलहिं ॥16॥<br><br> टा-टुक झाँकहु सातौ खंडा । खंडै खंड लखहु बरम्हंडा ॥<br>पहिल खंड जो सनीचर नाऊँ । लखि न अँटकु, पौरी महँ ठाऊँ ॥<br>दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ । काम-दुवार भोग-घर जहँवाँ ॥<br>तीसर खंड जो मंगल जानहु । नाभि-कँवल महँ ओहि अस्थानहु ॥<br>चौथ खंड जो आदित अहई । बाईं दिसि अस्तन महँ रहई ॥<br>पाँचव खंड सुक्र उपराहीं ।कंठ माहँ औ जीभ-तराहीं ॥<br>छठएँ खंड बुद्ध कर बासा । दुइ बौंहन्ह के बीच निवासा ॥<br><br> दोहा सातवँ सोम कपार महँ, कहा सो दसवँ दुआर ।<br>जो वह पवँरि उघारै सो बड सिद्ध अपार ॥<br><br> सोरठा  जौ न होत अवतार, कहाँ कुटुम परिवार सब ।<br>झूठ सबै संसार, मुहमद चित्त न लाइए ॥17॥<br><br> ठा-ठाकुर बड आप गोसाईं । जेइ सिरजा जग अपनिहि नाईं ॥<br>आपुहि आपु जौ देखै चहा । आपनि फ्रभुता आपु सौं कहा ॥<br>सबै जगत दरपन कै लेखा । आपुहि दरपन, आपुहि देखा ॥<br>आपुहि बन औ आपु पखेरू । आपुहि सौजा, आपु अहेरू ॥<br>आपुहि पुहुप फूलि बन फूले । आपुहि भँवर बास-रस भूले ॥<br>आपुहि फल, आपुहि रखवारा । आपुहि सो रस चाखनहारा ॥<br>आपुहि घट घट महँ मुख चाहै । आपुहि आपन रूप सराहै ॥<br><br> दोहा आपुहि कागद, आपु मसि, आपुहि लेखनहार ।<br>आपुहि लिखनी, आखर, आपुहि पँडित अपार ॥<br><br> सोरठा केहु नहिं लागिहि साथ, जब गौनब कबिलास महँ ।<br>चलब झारि दोउ हाथ, मुहमद यह जग छौडि कै ॥18॥<br><br> डा-डरपहु मन सरगहि खोई । जेहि पाछे पछिताव न होई ॥<br>गरब करै, जो हौं-हौं करई । बैरी सोइ गोसाइँ क अहई ॥<br>जो जाने निहचय है मरना । तेहि कहँ `मोर तोर' का करना ?॥<br>नैन, बैन सरबन बिधि दीन्हा । हाथ पाँव सब सेबक कीन्हा ॥<br>जेहिके राज भोग-सुख करई । लेइ सवाद जगत जस चहई ॥<br>सो सब पूछिहि, मैं जो दीन्हा । तैं ओहि कर कस अवगुन कीन्हा ॥<br>कौन उतर, का करब बहाना । बोवै बबुर, लवै कित धाना ? ॥<br><br> दोहा कै किछु लेइ, न सकब तब, नितिहि अवधि नियराइ ।<br>सो दिन आइ जो पहुँचै, पुनि किछु कीन्ह न जाई ॥<br><br> सोरठा  जेइ न चिन्हारी कीन्ह, यह जिउ जौ लहि पिंड महँ ।<br>पुनि किछु परै न चीन्हिह, मुहमद यह जग धुंध होइ ॥19॥<br><br> ढा-ढारे जो रकत पसेऊ । सो जाने एहि बात क भेऊ ॥<br>जेहि कर ठाकुर पहरे जागै । सो सेवक कस सोवै लागै ?॥<br>जो सेवक सोवै चित देई । तेहि ठाकुर नहिं मया करेई ॥<br>जेइ अवतरि उन्ह कहँ नहिं चीन्हा । तेइ जनम अँबरिथा कीन्हा ॥<br>मूँदे नैन जगत महँ अवना । अंधधुंध तैसे तै गवना ॥<br>लेए किछु स्वाद जागि नहिं पावा । भरा मास तेइ सोइ गँवावा ॥<br>रहै नींद-दुख-भरम लपेटा । आइ फिरै तिन्ह कतहुँ न भेंटा ॥<br><br> दोहा घावत बीते रैनि दिन, परम सनेही साथ ।<br>तेहि पर भयउ बिहान जब रोइ रोइ मींजै हाथ ॥<br><br> सोरठा लछिमी सत कै चेरि, लाल करे बहु, मुख चहै ।<br>दीठि न देखै फेरि, मुहमद राता प्रेम जो ॥20॥<br><br> ना-निसता जो आपु न भएउ । सो एहि रसहि मारि विष किएऊ ॥<br>यह संसार झूठ, थिर नाहीं ।उठहि मेघ जेउँ जाइ बिलाहीं ॥<br>जो एहि रस के बाएँ भएऊ । तेहि कहँ रस विषभर होइ गएऊ ॥<br>तेइ सब तजा अरथ बेवहारू । और घर बार कुटुम परिवारू ॥<br>खीर खाँड तेहि मीठ न लागे । उहै बार होइ भिच्छा माँगै ॥ <br>जस जस नियर होइ वह देखै । तस तस जगत हिया महँ लेखै ॥<br>पुहुमी देखि न लावै दीठी । हेरै नवै न आपनि पीठी ॥<br><br> दोहा छोडि देहु सब धंधा, काढि जगत सौ हाथ ॥<br>घर माया कर छोडि कै, धरु काया कर साथ ॥<br><br> सोरठा  साँई के भंडारु, बहु मानिक मुकुता भरे।<br>मन-चोरहि पैसारु, मुहमद तौ किछु पाइए ॥21॥<br><br> ता-तप साधहु एक पथ लागे । करहु सेव दिन राति, सभागे !॥<br>ओहि मन लावहु, रहै न रूठा । छोडहु झगरा, यह जग झूठा ॥<br>जब हंकार ठाकुर कर आइहि । एक घरी जिउ है न पाइहि ॥<br>ऋतु बसंत सब खेल धमारी । दगला अस तन, चढब अटारी ! ॥<br>सोइ सोहागिनि जाहि सोहागू । कंत मिलै जो खेलै फागू ॥<br>कै सिंगार सिर सेंदुर मेलै । सबहि आइ मिलि चाँचरि केलै ॥<br>औ जो रहै गरब कै गोरी । चढै दुहाग, जरै जस होरी ॥<br><br> दोहा  खेलि लेहु जस खेलना, ऊख आगि देइ लाइ ।<br>झूमरि खेलहु झूमि कै पूजि मनोरा गाइ ॥<br><br> सोरठा कहाँ तें उपने आइ, सुधि बुधि हिरदय उपजिए ।<br>पुनि कहँ जाहिं समाइ, मुहमद सो खँड खोजिए ॥22॥<br><br> था-थापहु बहु ज्ञान बिचारू । जेहि महँ सब समाइ संसारू ॥<br>जैसी अहै पिरथिमी सगरी । तैसिहि जानहु काया-नगरी ॥<br>तन महँ पीर औ बेदन पूरी । तन महँ बैद औ ओषद मूरी ॥<br>तन महँ विष औ अमृत बसई । जानै सो जो कसौटी कसई ॥<br>का भा पढे गुने औ लिखे ? करनी साथ किए औ सिखे ॥<br>आपुहि खोइ ओहि जो पावा । सो बीरौ मनु लाइ जमावा ॥<br>जो ओहि हेरत जाइ हेराई । सो पावै अमृत-फल खाई ॥<br><br> दोहा आपुहि खौए पिउ मिलै, पिउ खोए सब जाइ ।<br>देखहु बूझि बिचार मन, लेहु न हेरि हेराइ ॥<br><br> सोरठा कटु है पिउ कर खोज; जो पावा सो मरजिया ।<br>तह नहिं हँसी, न रोज; मुहमद ऐसै ठाँवँ वह ॥23॥<br><br> दा-दाया जाकह गुरु करई । सो सिख पंथ समुझि पग धरई ॥<br>सात खंड औ चारि निसेनी । अगम चढाव, पंथ तिरबेनी ॥<br>तौ वह चढै जौ गुरू चढावै । पाँव न डगै, अधिक बल पावै ॥<br>जो गुरु सकति भगति भा चेला । होइ खेलार खेल बहु खेला ॥<br>जौ अपने बल चढि कै नाँघा । सो खसि परा, टूटि गइ जाँघा ॥<br>नारद दौरि संग तेहि मिला । लेइ तेहि साथ कुमारग चला ॥<br>तेली-बैल जो निसि दिन फिरई । एकौ परग न सो अगुसरई ॥<br><br> दोहा सोइ सोधु लागा रहै जेहि चलि आगे जाइ ।<br>नतु फिरि पाछे आवई, मारग चलि न सिराइ ॥<br><br> सोरठा सुनि हस्ति कर नाव, अँधरन्ह टोवा धाइ कै ।<br>जेइ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा ॥24॥<br><br> धा-धावहु तेहि मारग लागे । जेहि निसतार होइ सब आगे ॥<br>बिधिना के मारग हैं ते ते । सरग-नखत तन-रोवाँ जेते ॥<br>जेइ हेरा तेइ तहँवैं पावा । भा संतोष, समुझि मन गावा ॥<br>तेहि महँ पंथ कहौं भल गाई । जेहि दूनौ जग छाज बडाई ॥<br>सो बड पंथ मुहम्मद केरा । है निरमल कबिलास बसेरा ॥<br>लिखि पुरान बिधि पठवा साँचा । भा परवाँन, दुवौ जग बाँचा ॥<br>सुनत ताहि नारद उठि भागै । छूटै पाप, पुन्नि सुनि लागै ॥<br><br> दोहा वह मारग जो पावै सो पहुँचै भव पार ।<br>जो भूला होइ अनतहि तेहि लूटा बटपार ॥<br><br> सोरठा साईं केरा बार, जो थिर देखै औ सुनै ।<br>नइ नइ करै जोहार, मुहमद निति उठि पाँच बेर ॥25॥<br><br> ना-नमाज है दीन क थूनी । पढै नमाज सोइ बड गूनी ॥<br>कही तरीकत चिसती पीरू । उधरति असरफ औ जहँगीरू ॥<br>तेहि के नाव चढा हौ धाई । देखि समुद-जल जिउ न डेराई ॥<br>जेहि के एसन खेवक भला । जाइ उतरि निरभय सो चला ॥<br>राह हकीकत परै न चूकी । पैठि मारफत मार बुडूकी ॥<br>ढूँढि उठै लेइ मानिक मोती । जाइ समाइ जोति महँ जोती ॥<br>जेहि कहँ उन्ह अस नाव चढावा । कर गहि तीर खेइ लेइ आवा ॥<br><br> दोहा साँची राह सरीअत, जेहि बिसवास न होइ ।<br>पाँव राख तेहि सीढी निभरम पहुँचै सोइ ॥<br><br> सोरठा जेइ पावा गुरु मीठ, सो सुख-मारग महँ चलै ।<br>सुख अनंद भा डीठ, मुहमद साथी पोढ जेहि ॥26॥<br><br> पा-पाएउँ गुरु मोहदी मीठा । मिला पंथ सो दरसन दीठा ॥<br>नावँ पियार सेख बुरहानू । नगर कालपी हुत गुरु-थानू ॥<br>औ तिन्ह दरस गोसाईं पावा । अलहदाद गुरु पंथ लखावा ॥<br>अलहदाद गुरु सिद्ध नवेला । सैयद मुहमद के वै चेला ॥<br>सैयद मुहमद दीनहिं साँचा । दानियाल सिख दीन्ह सुबाचा ॥<br>जुग जुग अमर सो हजरत ख्वाजे । हजरत नबी रसूल नेवाजे ॥<br>दानियाल तहँ परगट कीन्हा । हजरत ख्वाज खिजिर पथ दीन्हा ॥<br><br> दोहा खडग कीन्ह उन्ह जाइ कहँ, देखि डरै इबलीस ।<br>नावँ सुनत सो बागै, धुनै ओट होइ सीस ॥<br><br> सोरठा देखि समुद महँ सीप,बिनु बूडे पावै नहीं ।<br>होइ पतंग जल-दीप मुहमद तेहि धँसि लीजिए ॥27॥<br><br> फा फल मीठ जो गुरु हुँत पावै । सो बीरौ मन लाइ जमावै ॥<br>जौ पखारि तन आपन राखै । निसि दिन जागै सो फल चाखै ॥<br>चित झूलै जस झूलै ऊखा । तजि कै दोउ नींद औ भूखा ॥<br>चिंता रहै ऊख पहँ सारू । भूमि कुल्हाडी करै प्रहारू ॥<br>तन कोल्हू मन कातर फेरै । पाँचौ भूत आतमहि पेरै ॥<br>जैसे भाठी तप दिन राती । जग-धंधा जारै जस बाती ॥<br>आपुहि पेरि उडावै खोई । तब रस औट पाकि गुड होई ॥<br><br> दोहा अस कै रस औटावहु जामत गुड होइ जाइ । <br>गुड ते खाँड मीठि भइ, सब परकार मिठाइ ॥<br><br> सोरठा धूप रहै जग छाइ, चहूँ खंड संसार महँ ।<br>पुनि कहँ जाइ समाइ,मुहमद सो खंड खोजिए ॥28॥<br><br> बा-बिनु जिउ तन अस अँधियारा । जौं नहिं होत नयन उजियारा ॥<br>मसि क बुंद जो नैनन्ह माहीं । सोई प्रेम-अंस परछाहीं ॥<br>ओहि जोति सौं परखै हीरा । ओहि सौ निरमल सकल सरीरा ॥<br>उहै जोति नैनन्ह महँ आवै । चमकि उठै जस बीजू देखावे ॥<br>मग ओहि सगरे जाहिं बिचारू । साँकर मुँह तेहि बड बिसतारू ॥<br>जहवाँ किछु नहिं, है सत करा । जहाँ छूँछ तहँ वह रस भरा ॥<br>निरमल जोति बरनि नहिं जाई । निरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥<br><br> दोहा माटी तें जल निरमल, जल तें निरमल बाउ ।<br>बाउहु तें सुठि निरमल, सुनु यह जाकर भाउ ॥<br> सोरठा  इहै जगत कै पुन्न, यह जप तप सब साधना ।<br>जानि परै जेहि सुन्न, मुहमद सोई सिद्ध भा ॥29॥<br><br> भा-भल सोइ जो सुन्नहि जानै । सुन्नहि तें सब जग पहिचानै ॥<br>सुन्नहि तें है सुन्न उपाती । सुन्नहि तें उपजहिं बहु भाँती ॥<br>सुन्नहि माँझ इंद्र बरम्हंडा । सुन्नहि तें टीके नवखंडा ॥<br>सुन्नहि तें उपजे सब कोई । पुनि बिलाई सब सुन्नहि होई ॥<br>सुन्नहि सात सरग उपराहीं । सुन्नहि सातौ धरति तराहीं ॥ <br>सुन्नहि ठाट लाग सब एका । जीवहिं लाग पिंड सगरे का ॥<br>सुन्नम सुन्नम सब उतिराई । सुन्नहि महँ सब रहे समाई ॥<br><br> दोहा सुन्नहि महँ मन-रूख जस काया महँ जीउ ।<br>काठी माँझ आगि जस, दूध माहँ जस घीउ ॥<br><br> सोरठा जावँन एकहि बूँद, जामै देखहु छीर सब ।<br>मुहमद मोति समुद, काढहु मथनि अरंभ कै ॥30॥<br><br> मा-मन मथन करै तन खीरू । दुहै सोइ जो आपु अहीरू ॥ <br>पाँचौ भूत आतमहि मारै । दरब-गरब करसी कै जारै ॥<br>मन माठा सम अस कै धौवै । तन खैला तेहि माहँ बिलोवै ॥<br>जपहु बुद्धि कै दुइ सन फेरहु । दही चूर अस हिया अभेरहु ॥<br>पछवाँ कढुई कैसन फेरहु । ओहि जोति महँ जोति अभेरहु ॥<br>जस अंतरपट साढी फूटै । निरमल होइ मया सब छूटै ॥<br>माखन मूल उठै लेइ जोती । समुद माँह जस उलथै मोती ॥<br><br> दोहा जस घिउ होइ जराइ कै तस जिउ निरमल होइ ।<br>महै महेरा दूरि करि, भौग करै सुख सोइ ॥<br><br> सोरठा हिया कँवल जस फूल, जिउ तेहि महँ जस बासना ॥<br>तन तजि मन महँ भूल, मुहमद तब पहचानिए ॥31॥<br><br> जा-जानहु जिउ बसै सो तहवाँ । रहै कवँल-हिय संपुट जहँवाँ ॥<br>दीपक जैस बरत हिय-आरे । सब घर उजियर तेहि उजियारे ॥<br>तेहि महँ अंस समानेउ आई । सुन्न सहज मिलि आवै जाई ॥<br>तहाँ उठै धुनि आउंकारा । अनहद सबद होइ झनकारा ॥<br>तेहि महँ जोति अनूपम भाँती । दीपक एक, बरै दुइ बाती ॥<br>एक जो परगट होइ उजियारा । दूसर गुपुत सो दसवँ दुवारा ॥<br>मन जस टेम, प्रेम दीया । आसु तेल, दम बाती कीया ॥<br><br> दोहा तहँवा जम जस भँवरा फिरा करै चहुँ पास ।<br>मीचु पवन जब पहुँचै, लेइ फिरै सो बास ॥<br><br> सोरठा सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस आरे बरै ।<br>सब घर होइ अँजोर, मुहमद तस जिउ हीय महँ ॥32॥<br><br>  रा -रातहु अब तेहि के रंगा । बेगि लागु प्रीतम के संगा ॥<br>अरध उरध अस है दुइ हीया । परगट, गुपुत बरै जस दीया ॥<br>परगट मया मोह जस लावै । गुपुत सुदरसन आप लखावै ॥<br>अस दरगाह जाइ नहिं पैठा । नारद पँवरि कटक लेइ बैठा ॥<br>ताकहँ मंत्र एक है साँचा । जो वह पढै जाइ सो बाँचा ॥<br>पंडित पढै सो लेइ लेइ नाऊँ । नारद छाँडि देइ सो ठाऊँ॥<br>जेकरे हाथ होइ वह कूँजी । खोलि केवार लेइ सो पूँजी ॥<br><br> दोहा उगरे नैन हिया कर , आछै दरसन रात ।<br>देखै भुवन सो चौदहौ औ जानै सब बात ॥<br><br> सोरठा  कंत पियारे भेंट, देखौ तूलम तूल होइ ।<br>भए बयस दुइ हेंठ, मुहमद निति सरवरि करै ॥33॥<br><br> ला-लखई सोई लखि आवा । जो एहि मारग आपु गँवावा ॥<br>पीउ सुनत धनि आपु बिसारे । चित्त लखै,तन खोइ अडारै ॥<br>`हौं हौं करब डारहु खोई । परगट गुपुत रहा भरि सोई ॥<br>बाहर भीतर सोइ समाना । कौतुक सपना सो निजु जाना ॥<br>सोइ देखै औ सोई गुनई । सोई सब मधुरी धुनि सुनई ॥<br>सोई करै कीन्ह जो चहई । सोई जानि बूझि चुप रहई ॥<br>सोई घट घट होइ रस लेई । सोइ पूछै, सोइ ऊतर देई ॥<br><br> दोहा  सोई साजै अँतरपट, खेलै आपु अकेल ।<br>वह भूला जग सेंती, जग भूला ओहि खेल ॥<br><br> सोरठा जौ लगि सुनै न मीचु, तौ लगि मारै जियत जिउ । <br>कोई हुतेउ न बीचु, मुहमद ऐकै होइ रहै ॥34॥<br><br> वा-वह रूप न जाइ बखानी । अगम अगोचर अकथ कहानी ॥<br>छंदहि छंद भएउ सो बंदा । छन एक माहँ हँसी रोवंदा ॥<br>बारे खेल, तरुन वह सोवा । लउटी बूढ लेइ पुनि रोवा ॥<br>सो सब रंग गोसाईं केरा । भा निरमल कबिलास बसेरा ॥<br>सो परगट महँ आइ भुलावै । गुपत में आपन दरस देखावै ॥<br>तुम अनु गुपुत मते तस सेऊ । ऐसन सेउ न जानै केऊ ॥<br>आपु मरे बिनु सरग न छूवा । आँधर कहहिं, चाँद कहँ ऊवा ?<br><br> दोहा  पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ ।<br>एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ ॥<br><br> सोरठा  दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरबन्न मुख ।<br>पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥35॥<br><br> सा-साँसा जौ लहि दिन चारी । ठाकुर से करि लेहु चिन्हारी ॥<br>अंध न रहहु, होहु डिठियारा । चीन्हि लेहु जो तोहि सँवारा ॥<br>पहिले से जो ठाकुर कीजिय । ऐसे जियन मरन नहिं छीजिय ॥<br>छाँडहु घिउ औ मछरी माँसू । सूखे भोजन करहु गरासू ॥<br>दूध, माँसु, घिउ कर न अहारू । रोटी सानि करहु फरहारू ॥<br>एहि बिधि काम घटावहु काया । काम, क्रोध, तिसना, मद माया ॥<br>सब बैठहु बज्रासन मारी । गहि सुखमना पिंगला नारी ॥<br><br> दोहा प्रेम तंतु तस लाग रहु करहु ध्यान चित बाँधि । <br>पारस जैस अहेर कहँ लाग रहै सर साधि ॥<br><br> सोरठा अपने कौतुक लागि, उपजाएन्हि बहु भाँति कै ।<br>चीन्हि लेहु सो जागि, मुहमद सोइ न खोइए ॥36॥<br><br> खा-खेलहु, खेलहु ओहि भेंटा । पुनि का खेलहु, खेल समेटा ॥<br>कठिन खेल औ मारग सँकरा । बहुतन्ह खाइ फिरे सिर टकरा ॥<br>मरन-खेल देखा सो हँसा । होइ पतंग दीपक महँ धँसा ॥<br>तन-पतंग कै भिरिंग कै नाई । सिद्ध होइ सो जुग जुग ताई ॥<br>बिनु जिउ दिए न पावै कोई । जो मरजिया अमर भा सोई ॥<br>नीम जो जामै चंदन पासा । चंदन बेधि होइ तेहि बासा ॥<br>पावँन्ह जाइ बली सन टेका । जौ लहि जिउ तन, तौलहि भेका ॥<br><br> दोहा अस जानै है सब महँ औ सब भावहि सोइ ।<br>हौं कोहाँर कर माटी , जो चाहै सो होइ ॥<br><br> सोरठा सिद्ध पदारथ तीनि, बुद्धि, पावँ औ सिर, कया । <br>पुनि लेइहि सब छीनि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥37॥<br><br> सा साहस जाकर जग पूरी । सो पावा वह अमृत-मूरी ॥<br>कहौ मंत्र जो आपनि पूँजी । खोलु केवारा ताला कूँजी ॥<br>साठि बरिस जो लपई झपई । छन एक गुपुत जाप जो जपई ॥<br>जानहु दुवौ बराबर सेवा । ऐसन चलै मुहमदी खेवा ॥<br>करनी करै जो पूजै आसा । सँवरे नाँव जो लेइ लेइ साँसा ॥<br>काठी घँसत उठै जस आगी । दरसन देखि उठै तस जागी ॥<br>जस सरवर महँ पंकज देखा । हिय कै आँखि दरस सब लेखा ॥<br><br> दोहा  जासु कया दरपन कै देखु आप मुँह आप ।<br>आपुहि आपु जाइ मिलु जहँ नहिं पुन्नि न पाप ॥<br><br> सोरठा  मनुवाँ चंचल ढाँप, बरजे अहथिर ना रहै ।<br>पाल पेटारे साँप, मुहमद तेहि बिधि राखिए ॥ 38॥<br><br> हा-हिय ऐसन बरजे रहई । बूडि न जाइ, बूड अति अहई ॥<br>सोइ हिरदय कै सीढी चढई । जिमि लोहार घन दरपन गढई ॥<br>चिनगि जोति करसी तें भागै । परम तंतु परचावै लागै ॥<br>पाँच दूत लोहा गति तावै । दुहुँ साँस भाठी सुलगावै ॥<br>कया ताइ कै खरतर करई । प्रेम के सँडसी पोढ कै धरई ॥<br>हनि हथेव हिय दरपन साजै । छोलनी जाप लिहे तन माँजै ॥<br>तिल तिल दिस्टि जोति सहुँ ठानै । साँस चढाइ कै ऊपर आनै ॥ <br><br> दोहा तौ निरमल मुख देखै जोग होइ तेहि ऊप ।<br>होइ डिठियार सो देखै अंधन के अँधकूप ॥<br><br> सोरठा जेकर पास अनफाँस, कहु हिय फिकिर सँभारि कै ।<br>कहत रहै हर साँस, मुहमद निरमल होइ तब ॥39॥<br><br> खा -खेलन औ खेल पसारा । कठिन खेल औ खेलनहारा ॥<br>आपुहि आपुहि चाह देखावा । आदम-रूप भेस धरि आवा ॥<br>अलिफ एक अल्ला बड सोई । दाल दीन दुनिया सब कोई ॥<br>मीम मुहमद प्रीति पियारा । तिनि आखर यह अरथ बिचारा ॥<br>मुख बिधि अपने हाथ उरेहा । दुइ जग साजि सँवारा देहा ॥<br>कै दरपन अस रचा बिसेखा । आपन दरस आप महँ देखा ॥<br>जो यह खोज आप महँ कीन्हा तेइ आपुहि खोजा, सब चीन्हा ॥<br><br> दोहा भागि किया दुइ मारग, पाप पुन्नि दुइ ठाँव ।<br>दहिने सो सुठि दाहिने, बाएँ सो सुठि बावँ ॥<br><br> सोरठा भा अपूर सब ठावँ गुडिला मोम सँवारि कै ।<br>राखा आदम नाव, मुहमद सब आदम कहै ॥40॥<br><br> औ उन्ह नावँ सीखि जौ पावा । अलख नाव लेइ सिद्धू कहावा ॥<br>अनहद ते भा आदम दूजा । आप नगर करवावै पूजा ॥<br>घट घट महँ होइ निति सब ठाऊँ । लाग पुकारै आपन नाऊँ ॥<br>अनहद सुन्न रहै सब लागै । कबहुँ न बिसरे सोए जागै ॥<br>लिखि पुरान महँ कहाँ बिसेखी । मोहिं नहिं देखहु, मैं तुम्ह देखी ॥<br>तू तस सोइ न मोहिं बिसारसि । तू सेवा जीतै, नहिं हारसि ॥<br>अस निरमल जस दरपन आगे । निसि दिन तोर दिस्टि मोहिं लागे ॥<br><br> दोहा पुहुप बास जस हिरदय रहा नैन भरिपूरि ।<br>नियरे से सुठि नीयरे, ओहट से सुठि दूरि ॥<br><br> सोरठा दुवौ दिस्टि टक लाइ, दरपन जो देखा चहै ।<br>दरपन जाइ देखाइ, मुहमद तौ मुख देखिए ॥41॥<br><br> छा-छाँडेहु कलंक जेहि नाहीं । केहु न बराबरि तेहि परछाहीं ॥<br>सूरज तपै परै अति घामू । लागे गहन गहन होइ सामू ॥ <br>ससि कलंक का पटतर दीन्हा । घटै बढे औ गहने लीन्हा ॥<br>आगि बुझाइ ज पानी परई । पानि सूख, माटी सब सरई ॥<br>सब जाइहि जो जग महँ होई । सदा सरबदा अहथिर सोई ॥<br>निहकलंक निरमल सब अंगा । अस नाहीं केहु रूप न रंगा ॥<br>जो जानै सो भेद न कहई । मन महँ जानि बूझि चुप रहई ॥<br><br> दोहा  मति ठाकुर कै सुनि कै, कहै जो हिय मझियार ।<br>बहुरि न मत तासौं करै ठाकुर दूजी बार ॥<br><br> सोरठा गगरी सहस पचास जौ, कोउ पानी भरि धरै ।<br>सूरुज दिपै अकास, मुहमद सब महँ देखिए ॥42॥<br><br> ना-नारद तब रोइ पुकारा । एक जोलाहै सौं मैं हारा ॥<br>प्रेम-तंतु निति ताना तनई । जप तप साधि सैकरा भरई ॥<br>दरब गरब सब देइ बिथारी । गनि साथी सब लेहिं सँभारी ॥<br>पाँच भूत माँडी गनि मलई । ओहि सौं मोर न एकौ चलई ॥<br>बिधि कहँ सँवरि साज सो साजै । लेइ लेइ नावँ कूँच सौ माँजै ॥<br>मन मुर्री देइ सब अँग मोरै । तन सो बिनै दोउ कर जोरै ॥<br>सुथ सूत सो कया मँजाई । सीझा काम बिनत सिधि पाई ॥<br><br> दोहा राउर आगे का कहै जो सँवरै मन लाइ ।<br>तेहि राजा निति सँवरै पूछै धरम बोलाइ ।<br><br> सोरठा  तेहि मुख लावा लूक, समुझाए समुझै नहीं ।<br>परै खरी तेहि चूक, मुहमद जेहि जाना नहीं ॥43॥<br><br> मन सौं देइ कढनी दुइ गाढी । गाढे छीर रहै होइ साढी ॥<br>ना ओहि लेखे राति न दिना । करगह बैठि साट सो बिना ॥<br>खरिका लाइ करै तन घीसू । नियर न होइ, डरैं इबलीसू ॥<br>भरै साँस जब नावै नरी । निसरै छूँछी, पैठै भरी ॥<br>लाइ लाइ कै नरी चढाई । इललिलाह कै ढारि चलाई ॥<br>चित डोलै नहिं खूँटी ढरई । पल पल पेखि आग अनुसरई ॥<br>सीधे मारग पहुँचै जाइ । जो एहि भाँति करै सिधि पाई ॥<br><br> दोहा  चलै साँस तेहि मारग, जेहि से तारन होइ ।<br>धरै पाव तेहि सीढी , तुरतै पहुँचै सोइ ॥<br><br> सोरठा  दरपन बालक हाथ, मुख देखे दूसर गनै ।<br>तस भा दुइ एक साथ, मुहमद एकै जानिए ॥44॥<br><br> कहा मुहम्मद प्रेम-कहानी । सुनि सो ज्ञानी भए धियानी ॥<br>चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । देखहुँ निरखि भरा औ छूँछा ॥<br>दुहुँ रूप है एक अकेला । औ अनबन परकार सो खेला ॥<br>औ भा चहै दुवौ मिलि एका । को सिख देइ काहि को टेका ? ॥<br>कैसे आपु बीच सो मेटै ? । कैसे आप हेराइ सो भेंटै ?॥<br>जौ लहि आपु न झियत मरई । हँसै दूरि सौं बात न करई ॥<br>तेहि कर रूप बदन सब देखै । उठै घरी महँ भाँति बिसेखै ॥<br><br> दोहा सो तौ आपु हेरान है, तम मन जीवन खोइ ।<br>चेला पूछै गुरू कहँ, तेहि कस अगरे होइ ?॥<br><br> सोरठा मन अहथिर कै टेकु, दूसर कहना छाँडि दे ।<br>आदि अंत जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥45॥<br><br> सुनु देला ! उत्तर गुरु कहई । एक होइ सो लाखन लहई ॥<br>अहथिर कै जो पिंडा छाडै । औ लेइकै धरती महँ गाडै ॥ <br>काह कहौं जस तू परछाहीं । जौ पै किछु आपन बस नाहीं ॥<br>जो बाहर सो अंत समाना । सो जानै जो ओहि पहिचाना ॥<br>तू हेरै भीतर सौं मिंता । सोइ करै जेहि लहै न चिंता ॥<br>अस मन बूझि छाँडु;को तोरा ?। होहु समान, करहु मति `मोरा' ॥<br>दुइ हुँत चलै न राज न रैयत । तब वेइ सीख जो होइ मग ऐयत ॥<br><br> दोहा अस मन बूझहु अब तुम, करता है सो एक ।<br>सोइ सूरत सोइ मूरत, सुनै गुरू सौं टेक ॥<br><br> सोरठा नवरस गुरु पहँ, भीज, गुरु=परसाद सो पिउ मिलै ।<br>जामि उठै सो बीज, मुहमद सोई सहस बुँद ॥46॥<br><br> माया जरि अस आपुहि खोई । रहै न पाप, मैलि गइ धौई ॥<br>गौं दूसर भा सुन्नहि सुन्नू । कहँ कर पाप, कहाँ कर पुन्नू ॥<br>आपुहि गुरू, आपु भा चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।<br>अहै सो जोगी, अहै सो भोगी । अहैं सो निरमल,अहै सो रोगी ॥<br>अहै सो कडुवा, अहै सो मीठा । अहै सो आमिल, अहै सो सीठा ॥<br>वै आपुहि कहँ सब महँ मेला । रहै सो सब महँ, खेलै खेला ॥<br>उहै दोउ मिलि एकै भएऊ । बात करत दूसर होइ गएऊ ॥<br><br> दोहा जो किछु है सो है सब, ओहि बिनु नाहिंन कोइ ।<br>जो मन चाहा सो किया , जो चाहै सो होइ ।<br> सोरठा एक से दूसर नाहिं बाहर भीतर बूझि ले ।<br>खाँडा दुइ न समाहिं, मुहमद एक मियान महँ ॥47॥<br><br> पूछौं गुरु बात एक तोंही । हिया । सोच एक उपजा मोहीं ॥<br>तोहि अस कतहुँ न मोहि अस कोई । जो किछु है सो ठहरा सोई ॥<br>तस देखा मैं यह संसारा । जस सब भाँडा गढै कोहाँरा ॥<br>काहू माँझ खाँड भरि धरई । काहू माँझ सो गोबर भरई ॥<br>वह सब किछु कैसे कै कहई । आपु बिचारि बूझि चुप रहई ॥<br>मानुष तौ नीकै सँग लागै । देखि घिनाइ त उठि कै भागै ॥<br>सीझ चाम सब काहू भावा । देखि सरा सो नियर न आवा ॥<br><br> दोहा पुनि साईं सब जन मरै, औ निरमल सब चाहि ।<br>जेहि न मैलि किछु लागै, लावा जाइ न ताहि ॥<br><br> सोरठा जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औ सुख हिया ॥<br>घरही माहँ उदास, मुहमद सोइ सराहिए ॥48॥<br><br> सुनु चेला ! जस सब संसारू । ओहि भाँति तुम कया बिचारू ॥<br>जौ जिउ कया तौ दुख सौं भीजा । पाप के ओट पुन्नि सब छीजा ॥<br>जस सूरुज उअ देख अकासू । सब जग पुन्नि उडै परगासू ॥<br>भल ओ मंद जहाँ लगि होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥<br>मंदे पर वह दिस्टि जो परई । ताकर मैलि नैन सौं ढरई ॥<br>अस वह निरमल धरति अकासा । जैसे मिली फूल महँ बासा ॥<br>सबै ठाँव औ सब परकारा । ना वह मिला, न रहै निनारा ॥<br><br> दोहा ओहि जोति परछाहीं नवौ खंड उजियार ।<br>सूरुज चाँद कै जोती, अदित अहै संसार ॥<br><br> सोरठा जेहि कै जोति-सरूप, चाँद सुरुज तारा भए ।<br>तेहि कर रूप अनूप, मुहमद बरनि न जाइ किछु ॥49॥<br><br> चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । धरती सरग बीच सब छूँछा ॥<br>कीन्ह न थूनी, भीति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा ?॥<br>कहाँ से आइ मेघ बरिसावै । सेत साम सब होइ कै धावै ?॥<br>पानी भरै समुद्रहि जाई । कहाँ से उरे, बरसि बिलाई ?॥<br>पानी माँझ उठै बजरागी । कहाँ से लौकि बीजु भुइ लागी ?॥<br>कहँवा सूर , चंद औ तारा । लागि अकास करहिं उजियारा?॥<br>सूरुज उव बिहानहि आई । पुनि सो अथ कहाँ कहँ जाई ?॥<br><br> दोहा काहै चंद घटत है, कहे सूरुज पूर ।<br>काहे होइ अमावस, काहे लागे मूर ?॥<br><br> सोरठा जस किछु माया मोह, तैसे मेघा, पवन, जल ।<br>बिजुरी जैसे कोह, मुहमद तहाँ समाइ यह ॥50॥<br><br> सुनु चेला ! एहि जग कर अवना । सब बादर भीतर है पवना ॥<br>सुन्न सहित बिधि पवनहि भरा । तहाँ आप होइ निरमल करा ॥<br>पवनहि महँ जो आप समाना । सब भा बरन ज्यों आप समाना ॥<br>जैस डोलाए बेना डोलै । पवन सबद होइ किछुहु न बोलै ॥<br>पवनहि मिला मेघ जल भरई । पवनहि मिला बुंद भुइँ परई ॥<br>पवनहिं माहँ जो बुल्ला होई । पवनहि फुटै, जाइ मिलि सोई ॥<br>पवनहि पवन अंत होइ जाई । पवनहि तन कहँ छार मिलाई ॥<br><br> दोहा जिया जंतु जत सिरजा, सब महँ पवन सो पूरि ।<br>पवनहि पवन जाइ मिलि, आगि,बाउ,जल धूरि ॥<br><br> सोरठा निति सो आयसु होइ, साईं जो आज्ञा करै ॥<br>पवन-परेवा सोइ, मुहमद बिधि राखे रहै ॥51॥<br><br> बड करतार जिवन कर राजा । पवन बिना कछु करत न छाजा ॥<br>तेहि पवन सौं बिजुरी साजा । ओहि मेघ परबत उपराजा ॥<br>उहै मेघ सौं निकरि देखावै । उहै माँझ पुनि जाइ छपावै ॥<br>उहै चलावै चहुँदिसि सोई । जस जस पाँव धरै जो कोई ॥<br>जहाँ चलावै तहवाँ चलई । जस जस नावै तस तस नवई ॥<br>वहुरि न आवै छिटकत झाँपै । तेहि मेघ सँग खन खन काँपै ॥<br>जस पिउ सेवा चूखे रूठै । परै गाज पुहुमी तपि कूटै ॥<br><br> दोहा अगिनि, पानि औ माटी, पवन फूल कर मूल ।<br>उहई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल ॥<br><br> सोरठा देखु गुरू, मन चीन्ह, कहाँ जाइ खोजत रहै ।<br>जानि परै परबीन, मुहमद तेहि सुधि पाइए ॥52॥<br><br> चेला चरचत गुरु-गन गावा । खोजत पूछि परम गति पावा ॥<br>गुरु बिचारि चेला जेहि चीन्हा । उत्तर कहत भरम लेइ लीन्हा ॥<br>जगमग देख उहै उजियारा । तीनि लोक लहि किरिन पसारा ॥<br>ओहि ना बरन, न जाति अजाती । चंद न सुरुज; दिवस ना राती ॥<br>कथा न अहै, अकथ भा रहई । बिना बिचार समुझि का परई ?॥<br>सोऽहं सोऽहं बसि जो करई । जो बूझै सो धीरज धरई ॥<br>कहै प्रेम कै बरनि कहानी । जो बूझै सो सिद्धि गियानी ॥<br><br> दोहा माटी कर तन भाँडा, माटी महँ नव खंड ।<br>जे केहु खेलै माटि कहँ, माटी प्रेम प्रचंड ॥<br><br> सोरठा गलि सोइ माटीं होइ, लिखनेहारा बापुरा ।<br>जौ न मिटावै कोइ, लिखा रहै बहुतै दिना ॥53॥<br><br>* [[अखरावट / पृष्ठ 6 / मलिक मोहम्मद जायसी]]