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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
वक़्त को हाथ मलते हुए देखना
दिन हमारे बदलते हुए देखना

ऐ ज़माने तेरा शौक़ भी ख़ूब है
मुझको काँटों पे चलते हुए देखना

उसके जाने पे हालत न पूछो मेरी
दम किसी का निकलते हुए देखना

सब के सब सो गए किसकी क़िस्मत में था
चाँदनी रात ढलते हुए देखना

फूटी आँखों भी उसको सुहाता नहीं
पेड़ कोई भी फलते हुए देखना

काम आया है हमको सफ़र में बहुत
रहबरों को फिसलते हुए देखना

ये ‘अकेला’ बिकाऊ नहीं, हाँ नहीं
तुम ही सिक्के उछलते हुए देखना
</poem>
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