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{{KKVID|v=n_cBqBgFAns}}<poem>जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,<br>मैं खडा हुआ हूं दुनिया के इस मेले में,<br>हर एक यहां पर एक भुलाने में भूला,<br>हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,<br>कुछ देर रहा हक्क-बक्क, भौंचक्का सा,<br>आ गया कंहा, क्या करुं यहां, जाऊं किस जगह?<br>फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,<br>मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,<br>क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,<br>जो भीतर भी भावों का उहापोह मचा,<br>जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,<br>जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,<br>जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,<br>मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,<br>जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,<br>उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,<br>जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,<br>उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,<br>क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,<br>यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;<br>अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,<br>क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,<br>वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको<br>जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,<br>यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो<br>जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,<br>जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला<br>जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,<br>है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,<br>कितने ही मेरे पांव पडे, ऊंचे-नीचे,<br>प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,<br>मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,<br>पर मैं क्रितग्य उसका इस पर सबसे ज़्यादा -<br>नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,<br>अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,<br>मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,<br>कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,<br>ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,<br>वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,<br>जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,<br>लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,<br>इस एक और पहलू से होकर निकल चला,<br>जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
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