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|रचनाकार= नामवर सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}<poem>आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँही यूँ ही यह संध्या 
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
 
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या ।
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या। पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे।गुब्बारे ।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
 मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे।बजे ।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
'सेवा उपवन',पुस्पमित्र पुष्पमित्र गंधवह आ लगा मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।दिया ।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
 
यदि उससे वंचित रह जाता तू...?
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऎसाऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
</poem>
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