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सेतु-बन्ध का कार्य निर्विघ्न संपन्न हो इस लिये राम ने सागर तट पर यज्ञ कर शिव की स्थापना का संकल्प किया। उस समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने, रावण सीता को लाकर स्वयं उमका पुरोहित बना था। कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया। ये सारे प्रसंग सुविदित हैं। कदम्बिनी के ‘मई 2002’ के अंक में भी इस प्रसंग का उल्लेख है।
सीता का जो रूप बाद में अंकित किया गया, वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया। कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता। नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं में फेर-बदल करने से ले कर शापों, विस्मरणों, तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला। उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन। अतिरंजना, चमत्कारों और अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी।
जो इस संसार में मानव योनि में जन्मा उस पर प्रारंभ से ही परम पुण्यात्मा अथवा निकृष्ट अथवा पापी होने का ठप्पा लगा कर उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और व्यक्ति के एक-एक कार्य का औचित्य या अनौचित्य सिद्ध कर उसे महिमा मण्डित करने या निन्दा का पात्र बनाने से अच्छा यह है कि पूरे जीवन के कार्यों का लेखा-जोखा करने के पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुँचा जाये। कभी-कभी परम यशस्वी जीवन जीने वाले मनुष्य भी ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उनकी सारी उपलब्धियों पर पानी फिर जाता है और कभी जीवन भर गुमनाम या बदनाम व्यक्ति भी अपने किसी विलक्षण कार्य द्वारा यश के ऐसे शिखर पर पहुँच जाता है कि उसकी सारी कालिमा धुल जाती है। व्यक्ति का जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका मूल्यांकन भी उसी समग्रता में होना चाहिये।
श्री इलयावुलूरि राव ने अपने 'संदेश' शीर्षक अन्तिम अध्याय में एक बात बहुत पते की कही है। यह विडंबना की बात है कि सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है, किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो और वधू एवं पौत्र-विहीना कौशल्या जैसी वृद्धावस्था की कामना भी कोई माता नहीं करेगी। पवित्रता का आधार केवल पार्थिव शरीर हो इस पर वाल्मीकि की सीता ने कहा था, 'मुझे यह देख कर बड़ा दुख हो रहा है कि आपको मेरे भीतर मात्र एक स्त्री(देह) दिखाई दे रही है, अपनी पति परायण पत्नी नहीं। हमारे पवित्र वैवाहिक संबंध की सारी बातें आप भूल गये और मेरी श्रद्धा और निष्ठा को भी आपने भुला दिया। राम इसका कोई उत्तर नहीं दे पाये थे। क्या कोई नारी कामना करेगी कि ऐसी विषम स्थिति में पड़ने पर उसका पति इसी प्रकार का व्यवहार करे?
वाल्मीकि और उनके परवर्ती राम-कथा के रचनाकारों की दृष्टि और सृष्टि में पर्याप्त अंतर है। वाल्मीकि ने कहीं नहीं लिखा कि अहिल्या पत्थर बन कर पड़ी रही और राम ने उसे असने पैरों से छुआ। वहाँ गौतम ऋषि का शाप केवल इतना है कि राम के दर्शन होने तक वह बाह्य संसार के लिये अगोचर रहेगी। इसी प्रकार पंचवटी में लक्षमण ने सीता के वचन सुनकर जाते समय कोई रेखा नहीं खींची जो सीता को आगे बढने से निवारित करे। लेकिन समय के साथ वह रेखा ऐसी खिंची कि अब उसे मिटाना मुश्किल है। वाल्मीकि के रावण ने सीता का हरण उनके केश पकड कर और उन्हे अपनी बाहों में उठाकर किया है लेकिन परवर्ती राम-काव्य के रचयिताओं को यह नागवार लगा, उन्होंने इसके लिये नई उद्भावनायें कीं। अग्नि-परीक्षा के पूर्व कहे गये राम के कटु वचन भी वे बचा गये और रावण -वध का रूप भी परिवर्तित कर दिया गया।