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Kavita Kosh से
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास केनवास पर बिछ जाउँगीजाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूँदेंबूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेत लुंगीसमेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी !!
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