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06:55, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='महशर' इनायती
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दौर आया है शादमानी का
आओ मातम करें जवानी का
दर्स-ए-इबरत नहीं है ऐ दुनिया
ज़िक्र है उन की मेहर-बानी का
अब वो चुप हैं तो हो गया शायद
उन को एहसास बे-ज़बानी का
कल जो आँधी के साथ बादल छाए
मुझ को ध्यान आ गया जवानी का
उन से उन की हक़ीक़त ऐ ‘महशर’
दौर कब है ये हक़-बयानी का
</poem>
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