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03:17, 20 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मजीद 'अमज़द'
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<poem>
हर साल उन सुब्हों के सफर में इक दिन ऐसा भी आता है
जब पल भर को ज़रा सरक जाते हैं मेरी खिड़की के आगे से घूमते घूमते
सात करोड़ कुर्रे और सूरज के पीले फूलों वाली फुलवाड़ी से इक पत्ती उड़ कर
मेरे मेज़ पर आ गिरती है
इन जुम्बा जहतों में साकिन
तक इतने में सात करोड़ कुर्रे फिर पातालों से उभर कर और खिड़की के सामने आ कर
धूप की इस चौकोर सी टुकड़ी को गहना देते हैं
आने वाले बरस तक
इस कमरे तक वापस आने में मुझ को इक दिन उस को एक बरस लगता है
आज भी इक ऐसा ही दिन है
अभी अभी इक आड़ी तिरछी रौशन सीढ़ी सद-हा ज़ावियों की पल भर को झुक आई थी
उस खिड़की तक
एक लरज़ती हुई मौजूदगी इस सीढ़ी से अभी अभी इस कमरे में उतरी थी
बरस बरस होने के परतव की ये इक परत इस मेज़ पर दम भर यूँ ढलती है
जाने बाहर इस होनी के हस्त में क्या क्या कुछ हे
आज ये अपने पाँव तो पातालों में गड़े हुए हैं
</poem>
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