भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी / पूनम तुषामड़

1 byte removed, 04:04, 5 सितम्बर 2013
{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं नदी हूंहूँ
रोकने से कब किसी के
मैं रुकी हूं।हूँ।
बन कर निश्छल धार जल की
तरह मैं बही हूं।हूँ।
जंगल और पर्वत-शिखर को चीर कर
मैं धरा की
गर्वीली पुत्री बनी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
मैं नहीं किसी देव के
मैं प्रकृति की सुता
मैं धरा की बालिका
बन कर पली हूंहूँ
मैं किसी भी ईष्ट के
अधीन बन कर
कब रही हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
मैं हूं हूँ गंगा मैं ही जमुना।
मैं सतलज मैं नर्मदा।
मैं रावि मैं ही जेहलम।
शहर सारे।
मैं न जाति-धर्म में बंध
कर रही हूं।हूँ।
आश्रय पाते हैं
सब मेरे किनारे
मैं विषमता में
समता ही छवि हूं।हूँ।
देश और विदेश तक
फैली हुई हूंकहूँक
ब किसी के हाथ से
मैली हुई हूंहूँ?मैं नदी हूं।हूँ।
मैं बहा ले जाती हूंहूँ
दुख-दर्द सारे।
मैं चली हूं हूँ बन गति
तोड़े किनारे।
बांधने से बंधनों में
कब बंधी हूंहूँ
तोड़ सारे बांध मैं
बाढ़ बन आगे बढ़ी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
मैं हूं हूँ यौवन
मैं ही सावन
मैं ही हूं हूँ
हर पर्व-पावन
मैं ही ममता
मैं समर्पण
मैं तेरे कर्मों की
एकल साक्षी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
मैं हूं हूँ सुर और
मैं ही संगम
मैं हूं हूँ जीवन
मैं समागम
मैं ही अश्रुधार बन कर
आंख आँख से जग की बही हूं।हूँ।
मैंने सींचा मन को सबके
प्रेम-प्रवाह मैं बनी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
मैं हूं हूँ शक्ति मैं हूं हूँ आशामैं हूं हूँ तो कैसी निराशा?
मैं तेरे खेतों में बहती
शीतजल प्रवहिनी हूं।हूँ।
बांध जब मुझ पर बने
तो दामिनी हूंहूँ
जो करोगे प्रेम
तो मैं रागिनी हूंहूँ
झूठी मर्यादाओं में
न मैं बंधूगी
परंपरा औ संस्कृति के नाम पर न
मैं दबूंगी।
मैं हूं हूँ निश्छल धार,निश्छल ही रहूंगीरहूँगी
मैं निरंतर स्वच्छ जल
बन कर बहूंगीबहूँगीमैं नदी हूं।हूँ।
संत और सूफी बसे
प्रेम और विद्रोह का संदेश
लेकर जो पधारे
उनके मस्तक की छुअन हूंहूँउनकी वाणी की गवाह हूंहूँ
उनके काव्य की
सजग जनवाहिनी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
बादलों ने मुझ पर
बांधने की भूल न की
खुद कभी पर्वत-शिखर ने।
ना कभी रोके रूकी हूं हूँ मैं किसी गांव गाँव शहर में।
मैं किसी नर की
बपौती भी नहीं हूं।हूँ।
मैं खुद ही स्वामिनी,
स्वतंत्रा चिर हूं।हूँ।मैं नदी हूं।हूँ।
नित किए उपक्रम तुमने
जन पर निशाना साध कर
इन आपदाओं के हो उत्तरदायी तुम ही
मैं नहीं हूं हूँ मैं नदी हूं।हूँ।
मेधा के संघर्ष का आगाज़ हूं हूँ मैंशोषित-पीड़ित जन की आवाज हूं हूँ मैंसमता हेत संघर्ष आहलाद हूं हूँ मैंकब किसी शासक के आगे मैं झुकी हूं हूँ?
लेकर जन का साथ
मैं आगे बढ़ी हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
गर कभी रोके तुम्हारे
मैं कभी रूक जाऊंगी
तोड़ दूंगी दूँगी दम वहीं
सड़-गल के ठहरा जल बनी।
सूख जाऊंगी जाऊँगी या फिर मिट जाऊंगी।जाऊँगी।
मैं तुम्हारे काम की
फिर क्या भला रह जाऊंगी
रूकना मेरा ध्येय नहीं है
मैं सागर का अंग
सागर ही से मैं मिलने चली हूंहूँमैं नदी हूं।हूँ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,131
edits