भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मानोशी|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>प्रिय करो तुम याद स्वर्णिम पल कभी था बहुत सुंदर
व्यक्त था जो मौन, नयनों से बहा था नेह बन कर।
खिल उठा था फूल कोई भोर की इक किरण छूकर,
जल रही अब बन शिखा मैं, वक्ष दीप का चूमती हूँ
बन तुम्हारी आत्मा मैं स्वयं काया ढूँढती हूँ।
धार-अमृत बह रही है, चिर तपित बंजर धरा पर
हो गई अब प्रेम से सींचा हुआ मरुद्वीप, प्रियवर!
हाथ की पगडंडियों पर कब तुम्हारे चल पड़ी थी
बँध के मन के पाश से पर, मुक्त हो कर खेलती हूँ
प्रीत में जल कर कपू्री गंध जैसी फैलती हूँ
छवि तुम्हारी खेलती है, हर प्रहर जो स्वप्न बन कर
हृदय-स्पंदन में बसे तुम प्राण बन, हे प्रिय, निरंतर...</poem>