Changes

उलाहना / अज्ञेय

122 bytes added, 17:39, 2 नवम्बर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
नहीं, नहीं, नहीं!
 
मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया
 
पर क्या भुलाने को?
 
मैंने अपने दर्द को सहलाया
 
पर क्या उसे सुलाने को?
 
मेरा हर मर्माहत उलाहना
 
साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा!
 
ओ मेरे प्यार! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसा
 
तो यों नहीं कि मैंने बिछोह को कभी भी स्वीकारा।
 
नहीं, नहीं नहीं!
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits